________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० 2466] वीतराग प्रतिमाश्रींकी अजीब प्रतिष्ठा विधि 117 इन्द्रको जो व्यंतरोंका राजा है मूंगका बाटा, और बड़े विधिमें भी लिखा है कि मंदिरके शिखरपरके कलशोंसे इन्द्रराजको बड़े और मूंगका आटा, रुद्रको जो व्यंतरों एक हाथ ऊँची ध्वजा आरोग्यता करती है, दो हाथ का राजा है गुड़ के गुलगुले, व्यंतरोंके राजा रुद्रजय ऊँची पुत्रादि सम्पत्ति देती है, तीन हाथ ऊँची धान्य को भी गुड़के गुलगुले, श्राप देवताको गुड़के गुलगुले, आदि सम्पत्ति, चार हाथ ऊंची राजाकी वृद्धि, पाँच कमल और संख, पर्जन्यदेवको घी,जयंतदेवको लोणी, हाथ ऊँची सुभिक्ष और राज वृद्धि करती है, इत्यादि / घो अतंरिक्षदेवको हलद और उड़दका चून, पूषनदेवको अन्य भी अद्भुत बातें इन प्रतिष्ठा पाठोंमें लिखी हैं, सेवयोंका भात, विरुथदेवको कुट्ट अनाज, राक्षसदेवको जिनके द्वारा वीतराग भगवानकी प्रतिमा प्रतिष्ठित की ज्येष्ठमध, गंधर्वदेवको कपूर आदि सुगंध, भगराजदेवको गई हमारे मंदिरोंमें विराजमान हैं / दूध भात, मृषदेवको उड़द, दौवारिकदेवको चावलोंका प्राचीन श्राचार्योंके ग्रन्थोंमें तो यह लिखा मिलता आटा, सुग्रीवदेवको लड्डु, पुष्पदन्तदेवको फूल, असुर- है कि जिनेन्द्रदेवके गुण-गान करनेसे सब विघ्न दूर देवको लाल रंगका अन्न, शोषदेवको धुले हुए तिल होजाते हैं,कोई भी भय नहीं रहता है,सब ही पाप दूर हो चावल, रोगदेवको कारिका, नागदेवको शक्कर मिली जाते हैं / दुष्ट देव किसी तरहकी कोई खराबी नहीं कर हुई खील, मुख्यदेवको उत्तम वस्तु, भल्लाटदेवको गुड़ सकते हैं / सबही काम यथेष्ट रूपसे होते रहते हैं, परन्तु मिला हुअा भात, मृगदेवको गुड़के गुलगुले, अदिति इन प्रतिष्ठा पाठोंके द्वारा तो श्री अर्हत भगवान्का पंच को लड्डु उदितिको उत्तम वस्तु, विचारदेवको नमकीन. कल्याणक निर्विघ्न समाप्त होनेके वास्ते भी बुरे भले सब खाना, पूतनादेवीको पिसे हुए तिल, पापराक्षसीको ही प्रकारके देवी देवताओं यहाँतक कि भूतों प्रेतों राक्षसों कुलथी अनाज, चारकी देवीको घी शक्कर / अादि सबही व्यंतरों और सोम,शनिश्चर,राहु,केतु आदि ___ इतने ही से पाठक समझ सकते हैं कि क्या इस सबही ग्रहोंको अष्ट द्रव्यसे पूजा जाता है, उनकी रुचिकी प्रकार दुनिया भरके सभी देवी देवताओंको पूजनेसे अलग२ बलि दी जाती हैं और यज्ञ भाग देकर विदा ही वह वीतरागरूप प्रतिमा मन्दिर में विराजमान किया जाता है। उनके सब परिवार और अनुचरों सहित करने योग्य हो सकती है, अन्यथा नहीं / या इस इसही तरह अाह्वान किया जाताहै जिस प्रकार श्रीअर्हतों प्रकार इन रागीद्वेषी देवताओंको पूजनेसे हमारा श्रद्धान का किया जाता है, मानों जैनधर्म ही बदल कर कुछका भ्रष्ट होता है और प्रतिमा पर भी खोटे ही संस्कार पड़ते कुछ होगया है / उदाहरणके तौर पर तिलोयपण्णत्तिकी हैं / पं० अाशाधरके प्रतिष्ठापाठमें और प्रायः अन्य सब एक गाथा 1, 30 नीचे उद्धृतकी जाती है जो धवलमें ही प्रतिष्ठापाठोंमें यक्ष यक्षिणियों, क्षेत्रपाल श्रादिकी भी उद्घतकी गई है / जिनेन्द्र भगवानकें स्मरणकरनेके मूर्तियोंकी प्रतिष्ठाविधि भी लिखी है, जिनकी प्रतिष्ठा दिव्य प्रभावके ऐसे२ कथन सबही प्राचीन शास्त्रोंमें भरे होनेके बाद मंदिरमें विराजमान कर, नित्य पूजन करते पड़े हैं जिनको पढ़कर हमको अपने श्रद्धानको ठीक रहनेकी हिदायत है। यक्षोंकी प्रतिष्ठा पाँच स्थानोंके करना चाहिये और मिथ्यातसे भरे हुए इन प्रतिष्ठा पाठोंके जलसे प्रतिबिम्बका अभिषेककर रात्रिमें करनी चाहिए। जालमें फँसकर अपने श्रद्धानको नहीं बिगाड़ना चाहिये / पं० श्राशाधरजीने मंदिर के शिखर पर ध्वजा चढ़ानेकी णासदि विग्धं भेददियं हो दुट्टासुराणलंघति / -