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कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६]
उपयोग किया है पर स्याद्वाद के ही ऊपर संख्याबद्ध शास्त्र जैनाचार्योंने ही रचे हैं ।
उत्तरकालीन आचार्योंने यद्यपि महावीरकी उस पुनीत दृष्टि के अनुसार शास्त्र रचना की पर उस मध्यस्थ भाव को अंशतः परपक्षखंडन में बदल दिया । यद्यपि यह श्रावश्यक था कि प्रत्येक एकान्तमें दोष दिखाकर अनेकान्तकी सिद्धि की जाय, पर उत्तरकालमें महावीर की वह मानसी हिंसा उस रूपमें तो नहीं रही ।
जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार
कान्तदृष्टि विकासकी चरमरेखा है।
इस तरह दर्शनशास्त्र के विकास के लिहाज़ से विचार करने पर हम अनेकान्तदृष्टि से समन्वय करने वाले जैनदर्शनको विकासकी चरमरेखा कह सकते हैं । चरमरेखासे मेरा तात्पर्य यह है कि दो विरुद्धवादों में तब तक दिमागी शुष्क कल्पनाओं का विस्तार होता जायेगा जब तक उसका कोई वस्तुस्पर्शी हल - समाधान न मिल जाय। जब अनेकान्तदृष्टिसे उनमें सामञ्जस्य स्थापित हो जायगा तब झगड़ा किस बातका और शुष्कतर्क जाल किस लिए ? प्रत्येक वाद के विस्तार में कल्पनाएँ तभी तक बराबर चलेंगी जब तक अनेकान्तदृष्टि समन्वय करके उनकी चरमरेखा पूर्ण - विराम - न लगा देगी । स्वतः सिद्ध न्यायाधीश
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दृष्टिको हम एक न्यायाधीशके पद पर अनायास ही बैठा सकते हैं । अनेकान्तदृष्टि के लिए न्यायाधीशपद - प्राप्ति के लिये वोट मांगनेकी या अर्ज़ी देनेकी ज़रूरत नहीं है, वह तो जन्मसिद्ध न्यायाधीश है । यह मौजूदा यावत् विरोधिदृष्टि-रूप मुद्दई - मुद्दायलोंका उचित फैसला करने वाली है। उदाहरणार्थ - देवदत्त और यज्ञदत्त मामा- फाके भाई भाई हैं । देवदत्त रामचन्द्रका लड़का है और यज्ञदत्त भानजे । देवदत्त
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अपने पिता रामचन्द्रको यज्ञदत्त के द्वारा मामा कहे जाने पर उससे झगड़ता है, इसी तरह यज्ञदत्त रामचन्द्र को देवदत्त द्वारा पिता कहे जाने पर लड़ बैठता है । दोनों लड़के थे बड़े बुद्धिमान । वे एक दिन शास्त्रार्थ करने बैठ जाते हैं- यज्ञदत्त कहता है कि रामचन्द्र मामा ही है; क्योंकि उसकी बहिन हमारी माँ है हमारे पिता उसे साला कहते हैं, उसकी स्त्रीको हम मांई (मामी) कहते हैं, जब वह श्राता है तो मेरी मां पैर पड़ता है, हमें भानजा कहता है इत्यादि । इतना ही नहीं यज्ञदत्त रामचन्द्र के पिता होनेका खंडन भी करता है कि यदि वह पिता होता तो हमारी माँका भाई कैसे हो सकता था ? फिर हमारे पिता उसे साला क्यों कहते ?. वह हमारी मांके पैर भी कैसे पड़ता ? हम उसे मामाक्यों कहते ? आदि । देवदत्त भी कब चुप बैठने वाला था, उसने भी रामचन्द्र के पिता होनेका बड़े फटाटोपसे समर्थन करते हुए कहा कि – नहीं, रामचन्द्र पिता ही है क्योंकि हम उसे पिता कहते हैं, उसका भाई हमारा चाचा है, हमारी मां उसे भाई न कहकर स्वामी कहती है । वह उसके मामा होनेका खंडन भी करता है कि यदि वह मामा होता तो हमारी माँ क्यों उसे नाथ कहती ? हम भी क्यों न उसे मामा ही कहते आदि । दोनों केवल शास्त्रार्थ ही करके नहीं रह जाते किन्तु आपसमें मारपीट भी कर बैठते हैं । अनेकान्तदृष्टि वाला रामचन्द्र पासमें बैठे बैठे यह सब शास्त्रार्थ तथा मल्लयुद्ध देख रहा था । वह दोनों बच्चोंकी बातें सुनकर उनकी कल्पनाशक्ति तथा युक्तिवाद पर खुश होकर भी उस बौद्धिकवाद के फलस्वरूप होने वाली मार पीट - हिंसा से बहुत दुखी हुआ । उसने दोनों लड़कों को बुलाकर धीरेसे वस्तुस्वरूप दिखा कर समझाया किबेटा यज्ञदत्त ! तुम तो बहुत ठीक कहते हो, मैं तुम्हारा