Book Title: Anekant 1939 11
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 65
________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकीखोज पहला उद्धरण 'श्राचार-प्रणिधि' का है और यह और पाल्पाकारवाला पात्र मिलेगा, तो उसे ग्रहण आचार-प्रणिधि दशवैकालिक सूत्रके आठवें अध्ययनका करूंगा / / नाम है / उसमें लिखा है कि पात्र और कम्बलकी इन उद्धरणोंको देकर पूछा है कि यदि वस्त्रप्रतिलेखना करना चाहिए, अर्थात् देख लेना पात्रादि ग्राह्य न हो तो फिर ये सूत्र कैसे लिये जावे चाहिए कि वे निर्जन्तुक हैं या नहीं। और फिर कहा है हैं ! कि प्रतिलेखना तो तभीकी जायगी जब पात्र कम्बलादि इसके आगे भावना (आचारांगसूत्रका 24 वाँ होंगे, उनके बिना वह कैसे होगी 1 दूसरा उद्धरण अध्ययन ) का उद्धरण दिया है कि भगवान् महावीरने आचारांगसूत्र का है उसके लोकविचय नामके दूसरे एक वर्ष तक वस्त्र धारण किया और उसके बाद वे अध्ययनके पाँचवे उद्देश्य में भी कहा है कि भिक्षु अचेलक ( निर्वस्त्र ) हो गये / ' पिच्छिका, रजोहरण, उग्गह और कटासन इनमेंसे कोई सूत्रकृतांगके पुण्डरीक अध्ययनमें कहा है कि साधुउपाधि रक्खे / को किसो वस्त्रपात्रादिकी प्राप्ति के मतलबसे धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए और निशीथसूत्रके दूसरे उद्देश्यमें इसके आगे वत्थेसणा (वस्त्रैषणा) और पाएषणा भी कहा है कि जो भिद वस्त्र-पात्रोंको एक साथ ग्रहण ( पात्रषणा ) के तीन उद्धरण दिये हैं जिनका सारांश करता है उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त लेना पड़ता है।' यह है कि जो साधु ह्रीमान या लज्जालु हो, वह एक शंकाकार कहता है कि इस तरह सूत्रोंमें जब वस्त्रवस्त्र धारण करे और दूसरा प्रतिलेखनाके लिए रखे, ग्रहणका निर्देश है, तब अचेलता कैसे बन सकती जिसका लिंग बेडौल जुगुप्साकर हो वह दो वस्त्र धारण है ? इसके समाधानमें टीकाकार कहते हैं कि अगममें करे और तीसरा प्रतिलेखनाके लिए रखे और जिसे अर्थात् अाचारांगादिमें आर्यिकाओंको वस्त्रकी अनुज्ञा शीतादि परिषह सहन न हो वह तीन वस्त्र धारण करे है परन्तु भिक्षुओंको वह अनुज्ञा कारणकी अपेक्षा है / और चौथा प्रतिलेखनाके लिए, रखे५ / यदि मुझे तूंबी जिस भिक्षुके शरीरावयव लज्जाकर हैं और जो परीषह लकड़ी या मिट्टीका अल्पप्राण, अल्पबीज, अल्पप्रसार, + पुनश्चौक्तं तत्रैव-पानाबुपतं वा दारुगपत्तं-प्राचारपणिधौ भणितं / २-३-प्रतिलिखे. वा मटिगपत्तं वा अप्पपाण अप्पबीजं अप्प सरिदं तथा स्पात्रकम्बलं ध्रुवमिति / असत्सु पात्रादिष कथं प्रति- अप्पकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिस्समीति / लेखना ध्रुवं क्रियते / ४-आचारस्यापि द्वितीयाध्ययनो वस्त्रपात्रे यदि न माझे कथमेतानि सूत्राणि लोकविचयो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तं / पडिलेहणं पादपुंछणं उग्गहं कडासणं अण्णदरं उपधिं पावेज -वरिसं चीवरधारि तेन परमचेलके तु जिणे / इति / १-तथा वत्येसणाए वत्तं तत्थ एसेहिरिमणे सेगं. वत्थं वा धारेज पडिलेहणं विदियं, तत्थ एसे जुग्गिदे २-ण कहेज्जो धम्मकहं बस्थपत्तादिहेदुमिति / दुवे बत्थाणि-धारेजपडिलेहणंतिदियं / तत्थ एसे परिस्स ३-कसिणाई वत्थकंबज्ञाइं जो भिक्खु पडिग्गहिदिहं अणधिहासस्स तगोवत्थाणि-धारेज पडिलेहणच- पज्जदि मासिगं लहुगं इति / "-एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इति / उत्थं।

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