Book Title: Anekant 1939 11
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 74
________________ लेखक मातृत्व श्री. भगवत जैन HMM UMEMEMMELMEZMELMEELMS13 3 फूलों की कोमलतामें, ज्योत्स्ना की स्निग्धताके भीतर और प्रकृतिके सु-विस्तृत-अंचलमें है 5 मिलती है मातृत्वकी हृदय-इष्टभावना' ! 'अ-कपट-प्रेम और आत्मीयताके पवित्र-बन्धनोंसे र अलंकृत रहता है-मातृत्व !... जिसे समग्र-संसारकी निधियों भी नहीं खरीद सकती ! जो ( अमूल्यतासे ध्रुव सम्बन्ध रखता है ! ........ HINL-IN.PN-INL-INL-PLAM.FAMILINLAIL-INLS समृद्धिकी गोदमें बैठे हुये इस छोटेसे परिवारको कर्लभ दृष्टान्तोंमें उसे कहना चाहिए-नमूना! इसीकी आवश्यकता थी कि, तमसान्वित-भवन श्रालो उजैसी कि प्रायः देखने-सुनने में नहीं आती, कित हो ! सुघड़, दृष्टि-प्रिय वल्लरी स-फल, स-पुष्प हो! वह वैसी ही बात थी !...... और वह हो सकता था एक पुत्र रत्नकी प्राप्ति के द्वारा वसुदत्ता थी बड़ी, और वसुमित्रा थी छोटी। दोनों ही !... बालकका जन्मोत्सव एक महान् त्रुटिकी पूर्ति के में अपार स्नेह,अगाध प्रेम ! और दोनों ही अनिंद्य-सुन्दरी, रूपमें मनाया गया ! न बड़ी कम, न छोटी ज्यादह ! उज्वल-भविष्यका क्रान्तिमय-पिएड-सा, वह सुको. ____ वणिक-वर समुद्रदत्त अपनी दोनों स्त्रियोंकी हार्दि- मल-शिशु! ऐसा लगता, जैसे परिवार के अपरिमितकता पर अतीव प्रसन्न ! घरमें स्वर्ग सुख ! मनोमालि- हर्षका साकार केन्द्र-स्थल हो ! या हो तीनों अधिकारी न्य, ईर्षा, देष और स्वभावतः होने वाला गृह-कलह संरक्षोंके मोदमय-जीवनका प्रथम-अध्याय ! दिन-कानाममात्रको भी नहीं ! इससे अधिक चाहिए भी क्या ? दिन वीत जाता, रातके दो-दो पहर निकल जाते; तब फिर पति-प्रेम भी न्याय—संगत-दोनोंको बराबर बरा- भी वह बच्चेको खिलाते, चुमकारते और आनन्द लेते वर प्राप्त था! दिखलाई देते ! परीक्षाके लिए बैठे विद्यार्थीकी भाँति दिन अानन्दमें बीतते गए। जैसे वह अध्ययनमें संलग्न हों ! और बार-बार फेल इसी समय वसुमित्राको प्रसूति हुई / मरु-भूमिमें होनेके बाद, मिला हो परीक्षार्थियोंकी पंक्तिमें बैठनेका जैसे हरियाली पनपी ! चिर-पिपासित-नेत्रों की तृषा अवसर!:." शमन होने को आई ! देखा-नवनीत-सा, बालक ! इसके बाद भी—समुद्रदत्तको एक बात और देखने चांद-सा सुन्दर,चांदनी-सा श्राहादकर! सारा घर प्रसन्न- को मिली, जो उनके लिए असीम अानन्द-दायक थी! तामें डूबने उतराने लगा ! - और दूसरे लोगोंके लिए विस्मय-जनक ! वह यह कि

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