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कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६]
है कि - उत्तरकालीन प्राचार्योंने बुद्ध के उपदेशों में आए हुए क्षणिक, विभ्रम, शून्य, विज्ञान श्रादि एक एक शब्द के आधार पर प्रचुर ग्रन्थराशि रच डाली और क्षणभंगवाद, विभ्रनवाद, शून्यवाद, ज्ञानाद्वैतवाद श्रादि वादोंको जन्म देकर इतरमतोंका निरास भी बड़े फटाटोपसे किया । इन्होंने बुद्धकी उस मध्यमदृष्टिकी र समुचित ध्यान न देकर वैदिकदर्शनों पर ऐकान्तिर प्रहार किया । मध्यमप्रतिपदा के प्रति इनकी उपेक्षा यहाँ तक बढ़ी कि - मध्यमप्रतिपदा ( श्रनेकान्तदृष्टि ) के द्वारा ही समन्वय करनेवाले जैनदार्शनिक भी इनके आक्षेपोंसे नहीं बच सके । बौद्धाचार्योंने 'नैरात्म्य' शब्द के आधार पर श्रात्माका ऐकान्तिक खंडन किया; भले ही बुद्धने नैरात्म्य शब्दका प्रयोग 'जगतको श्रात्मस्वरूप से भिन्नत्व, जगत्का श्रात्माके लिए निरुपयोगी होना, कूटस्थ श्रात्मतत्त्वका प्रभाव' आदि अर्थों में किया था । 'क्षणिक' शब्दका प्रयोग तो इसलिए था कि - हम स्त्री
जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार
दि पदार्थों को शाश्वत और एकरूप मानकर उनमें श्रासक्त होते हैं, अतः जब हम उन्हें क्षणिक-विनश्वर, बदलनेवाले समझने लगेंगे तो उस श्रोरसे चित्तको विरक्त करने में पर्याप्त सहायता मिलेगी। स्त्री श्रादिको हम एक अवयवी–अमुक आकारवाली स्थूल वस्तुके रूपमें देखते हैं, उसके मुख आदि स्थूल अवयवोंको देखकर उसमें राग करते हैं, यदि हम उसे परमाणुओं का एक पुंज ही समझेंगे तो जैसे मिट्टी के ढेरमें हमें राग नहीं होता उसी तरह स्त्री आदि के अवयवोंमें भी रागकी उद्भूति नहीं होगी । बौद्धदर्शन-ग्रन्थोंमें इन मुमुक्षु भावनाओंका लक्ष्य यद्यपि दुःख-निवृत्ति रहा पर समर्थनका ढंग बदल गया । उसमें परपक्षका खंडन अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गया तथा बुद्धि-कल्पित विकल्पजालोंसे बहु विध पन्थ और ग्रंथ गूंथे गए ।
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मध्यमप्रतिपदाका शाब्दिक श्रादर तो सभी बौद्धचायने अपने अपने ढँगसे किया पर उसके अन्तर्निहिततत्त्वको सचमुच भुला दिया । शून्यवादी मध्यमप्रतिपदाको शून्यरूप कहते हैं तो विज्ञानवादी उसे विज्ञानरूप । शून्यवादियोंने तो सचमुच उसे शून्यता का पर्यायवाची ही लिख दिया है
" मध्यमा प्रतिपत्सैव सर्वधर्मनिरात्मता । भूतकोटिश्च सैवेयं तथता सर्वशून्यता ॥”
अर्थात् - मध्यमा प्रतिपत्, सर्वधर्मनैरात्म्य और सर्वशून्यता, ये पर्यायवाची शब्द हैं। यही वास्तविक और
तथ्यरूप है ।
सारांश यह कि बुद्धकी मध्यमा प्रतिपत् श्रपने शैशवकाल में ही मुरझा गई, उसकी सौरभ सर्वत्र न फैल सकी और न उत्तराधिकारियोंने ही इस ओर अनुकूल प्रयत्न किया ।
जैनदृष्टा धार और विस्तार
भगवान् महावीर अत्यन्त कठिन तपस्या करनेवाले तपः शूर थे । इन्होंने अपनी उग्रतपस्यासे कैवल्य प्राप्त किया । भगवान् महावीरने बुद्धकी तरह अपने श्राचारको ढीला करने में श्रनेकान्तदृष्टिका सहारा नहीं लिया और न अनेकान्त दृष्टिका क्षेत्र केवल श्राचार ही रक्खा । महावीरने विचारक्षेत्र में अनेकान्तदृष्टिका पूरा पूरा उपयोग किया; क्योंकि उनकी दृष्टि में विचारोंका समन्वय किए बिना श्राचारशुद्धि असंभव थी । आत्मादि वस्तुओंके कथनमें बुद्धकी तरह महावीरने मौनावलम्बन नहीं किया; किन्तु उनके यथार्थ स्वरूपका निरूपण किया । उन्होंने कहा कि - श्रात्मा है भी, नहीं भी, नित्य भी है और नित्य भी । यह श्रनेकान्तात्मक वस्तुका कथन उनकी मानसी अहिंसाका अवश्यम्भावी फल है ।