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अनेकान्त
भगवान महावीरने अपनी इस उदारता, निर्भीकता एवं अन्याय प्रतीत होता है। जैनधर्ममें तो पहलेसे ही हृदयकी विशालताके कारण ही उस समयकी विकट स्त्रियोंने पार्यिका श्रादिकी दीक्षा लेकर प्राचारांगकी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त की थी।
पद्धतिके अनुसार यथाशक्ति नपश्चरणादि कर देवेन्द्रादि इसके सिवाय, भगवान् महावीरने अहिंसा और पद प्राप्त किये हैं। अनेकान्तको अपने जीवन में उतारा था, उनकी आत्मा सच पूछिये तो धर्म किसी एक जाति या सम्प्रदायशुद्धि तथा शक्तिको पराकाष्ठाको--चरम सीमाको-- की मीरास नहीं है, वह तो वस्तुका स्वभाव है उसे पहुंच चुकी थी और उनका शासन दया दम, त्याग तथा धारण करने और उसके द्वारा अात्माका विकास करनेका समाधिकी तत्परताको लिये हुए था। इसी लिये विरोधी सभी जीवोंको अधिकार है भले ही कोई जीव अपनी श्रात्माओं तथा तत्कालीन जनसमूह पर उनका इतना अल्पयोग्यताके कारण परा अात्मविकास न कर सके। अधिक एवं गहरा प्रभाव पड़ा था कि वे लोग अधिक परन्तु इससे उसके अधिकारोंको नहीं छीना जा सकता। संख्या में अपने उन अधर्ममय शुष्क क्रियाकाण्डोंको जो धर्म पतितोंका उद्धार नहीं कर सकता--उन्हें ऊँचा छोड़कर तथा कदाग्रह और विचारसंकीर्णताकी जंजीरों- नहीं उठा सकता-वह धर्म कहलानेके योग्य ही नहीं। को तोड़कर बिना किसी हिचकिचाकटके वीर भगवानकी जैनधर्म में धर्मकी जो परिभाषा श्राचार्य समन्तभद्रने शरणमें आये, और उनके द्वारा प्ररूपित जैन धर्मके बत्तलाई है वह बड़ी ही सुन्दर है। उसके अनुसार जो तत्वोंका अभ्यास मनन एवं नदनुकूल वर्तन करके अपनी संपारके प्राणियोंको दु:खोंले छुड़ाकर उत्तम सुखमें श्रात्माके विकास करने में तत्पर हुए।
धारण करे उसे 'धर्म' कहते हैं, अथवा जीवकी सम्यग्दवीरशासनमें स्त्री और पुरुषोंको धार्मिक अधिकार र्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप परिणतिविशेष समानरूप से प्राप्त हैं । जिस तरह पुरुष अपनी योग्यता- को 'धर्म' कहते हैं । इस परिणतिके द्वारा ही जीवात्म नुसार श्रावक और मुनिधर्मको धारण कर श्रात्मकल्याण आत्म उद्धार करने में सफल हो सकता है। कर सकते हैं उसी तरहसे स्त्रियाँ भी अपनी योग्यतानुसार परन्तु खेद है कि आज हम भगवान् महावीरके श्राविका और आर्यिकाके व्रतोंका पालनकर आत्म- पवित्र शासनको भूल गये ! इसी कारण उनके महत्वकल्याण कर सकती हैं। भगवान महावीरके संघमें एक पूर्ण सन्देशसे श्राज अधिकांश जनता अपरिचित ही लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ तथा चौदह दिखाई देती है। हमारे हृदय अन्धश्रद्धा और स्वार्थमय हज़ार मुनि और छत्तीस हजार आर्यिकाएँ थीं । आर्यि- प्रवृत्तियोंसे भरे हुए हैं, ईर्षा द्वेष-अहंकार आदि दुर्गुणों कानों में मुख्य पदकी अधिष्ठात्री चन्दना सती थी। से दुपित हैं । स्त्रियों के साथ श्राज भी प्रायः वैसा ही वीरशासनमें गृहस्थोचित कर्तव्योंका यथेष्ट रूपसे पालन व्यवहार किया जाता है जैसा कि अबसे ढाई हज़ार वर्ष करते हुए स्त्रियोंको धर्मसेवनमें कोई रुकावट नहीं है, पहले किया जाता था। हाँ, उसमें कुछ सुधार ज़रूर जबकि संसारके अधिकांश धर्मों में स्त्रियोंको स्वतंत्ररूपसे - हुअा है; परन्तु अभी भारतीय स्त्री समाजको यथेष्ट स्वतधर्मसेवन करनेका थोड़ासा भी अधिकार प्राप्त नहीं है, न्त्रता प्राप्त नहीं हुई है । फिर भी धर्म-सेवनकी जो कुछ और जिससे उनके प्रति उन धर्मसंस्थापकोंका महान स्वतन्त्रता मिली है उसमें यदि स्त्रीसमाज चाहे तो वह