________________ यापनीय साहित्यकी खोज . [ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई ] यापनीय संघ अासपास बहुत प्रभावशाली रहा है / कदम्ब', राष्ट्रकूट जन धर्मके मुख्य दो सम्प्रदाय हैं, दिगम्बर और और दूसर वंशकि राजाअोंने इस संघको और इसके "श्वेताम्बर | इन दोनोंके अनयायी लाखों हैं प्राचार्योको भूमिदान किये थे। प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य और साहित्य भी विपुल है, इसलिए इनके मतों और हरिभद्रसूरिने अपनी ललितविस्तरामें यापनीयतंत्रका मत भेदोंसे साधारणतः सभी परिचित हैं,परन्तु इस बात सम्मान-पूर्वक उल्लेख किया है / का बहुत ही कम लोगोंको पता है कि इन दोके अति ___ श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य शाकटायन ( पाल्यकीर्ति ) रिक्त एक तीसरा सम्प्रदाय भी था जिसे 'यापनीयम जैसे सुप्रसिद्ध वैयाकरण इस सम्प्रदायमें उत्पन्न हुए हैं। 'गोप्य' संघ कहते थे और जिसका इस समय एक भी चालुक्य-चक्रवर्ती पुलकेशीकी प्रशस्तिके लेखक कालिअनुयायी नहीं है। दास और भारविकी समताकरनेवाले महाकवि रवियह सम्प्रदाय भी बहुत प्राचीन है। 'दर्शनसारके कीर्ति भी इसी सम्प्रदायके मालूम होते हैं / कर्ता देवसेनसरिके कथनानुसार कमसे कम वि० सं० र इस संघका लोप कब हुआ और किन किन कारणोंसे 205 से तो इसका पता चलता ही है और यह समय / हुअा, इसका विचार तो आगे कभी किया जायगा; परन्तु . दिगम्बर श्वेताम्बर२ उत्पत्निसे मिर्फ 60-70 वर्ष बाद अभी तककी खोजसे यह निश्चःपूर्वक कहा जा सकता पड़ता है। इसलिए यदि मोटे तौर पर यह कहा जाय है कि विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दि तक यह सम्प्रदाय कि ये तीनों ही सम्प्रदाय लगभग एक ही समय के हैं जीवित था / कागबाडे के शिलालेखमें. जो जैनमन्दिरतो कुछ बड़ा दोष न होगा, विशेष कर इसलिए कि 3 कदम्बवंशी राजाओंके दानपत्र, देखो जैनसम्प्रदायोंकी उत्पत्तिकी जो तिथियाँ बताई जाती हैं वे हितैषी, भाग 14 अंक 7-8 बहुत सही नहीं हुया करतीं। 4 देखो, ई० ए० १२पृ०१३-१६ में राष्ट्रकूट प्रभूत किसी समय यह सम्प्रदाय कर्नाटक और उसके वर्षका दानपत्र / 5 देखो इं० ए० २पृ०१५६-५६ में पृथ्वीकोंगणि 1 कल्लाणे वरणयरे दुण्णिसए पंचउत्तरे जादे। महाराजका दानपत्र जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो // 26 // 6 श्रीहरिभद्रसूरिका समय आठवीं शताब्दि है। 2 छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स / 7 देखो प्राचीन लेखमाला भाग 1 पृ० 68-72 / सोरटे वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो // 1 // देखो बाम्बे यू० जर्नलके मई 1933 के अंकमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार दिगम्बरोंकी प्रो० ए० एन० उपाध्याय एम० ए० का 'यापनीय संघ' उत्पत्ति वीरनिर्वाणके 606 वर्ष बाद (वि० सं० 136 नामक लेख और जैनदर्शन वर्ष 4 अंक में उसका अनुवाद।