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वास्तविक स्वरूप ज्ञानगम्य है भी । उसकी बुद्धि सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद से अनुरञ्जित होजाती है । वह ऋग्वेद १०-१२ सूक्तके निर्माता ऋषि परमेष्ठीकी तरह सोचने लगता है कि "कौन पुरुष ऐसा है जो जानता है कि सृष्टि क्यों बनी और कहाँसे बनी और इसका क्या आधार है । मुमकिन है कि विद्वान लोग इस रहस्य को जानते हों । परन्तु यह तत्त्व विद्वान लोग कैसे बतला सकते हैं । यह रहस्य यदि कोई जानता होगा तो वही जानता होगा जो परमव्योममें रहनेवाला अध्यक्ष है । ।
वह पारस देशके सुप्रसिद्ध कवि, ज्योतिषज्ञ और तत्त्वज्ञ उमरखय्याम की तरह निराशा से भरकर कहने लगता है । भूमण्डल के मध्यभागसे उठकर मैं ऊपर आया । सातों द्वार पार कर ऊँचा शनिका सिंहासन पाया । कितनी ही उलझनें मार्गमें सुलझा डाली मैंने किन्तु मनुज-मृत्युकी और नियतिकी खुली न ग्रन्थिमयीमाया ३१ यहाँ ‘कहाँसे क्यों’ न जानकर परवश आना पड़ता है वाहित विवश वारि-सा निजको नित्य बहाना पड़ता है कहाँ चले?फिर कुछन जानकर इच्छाहो, कि अनिच्छा हो परपटपर सरपट समीर-सा हमको जाना पड़ता है ॥
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अनेकान्त
तत्वज्ञोंके इस प्रकारके अनुभव ही दर्शन - शास्त्रों के सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद सिद्धान्तों के कारण हुए हैं । तो क्या सन्दिग्धवाद और अज्ञान वाद सर्वथा ठीक हैं? नहीं। सन्दिग्धवाद और अज्ञानबाद भी सत्यसम्बन्धी उपयुक्त अनेक धारणाओं के
1 श्रीनरदेव शास्त्री - ऋग्वेदालोचन, संवत् १६८५, पृ० २०३ २०५
+ रुबाइयात उमरखय्याम - अनुवादक श्री मैथिली
शरण गुप्त, १९३१
[ वर्ष ३, किरण १
समान एकान्तवाद हैं, एक विशेष प्रकारक के अनुभवकी उपज हैं ।
इस अनुभवका आभास विचारक को उस समय होता है जब वह व्यवहार्य सत्यांश बोधके समान ही विराट सत्यका वा सूक्ष्म सत्यका बोध भी इन्द्रियज्ञान, बुद्धि और शास्त्राध्ययनके द्वारा हासिल करनेकी कोशिश करता है । इस प्रयत्न में असफल रहने के कारण वह धारणा करता है कि सत्यसर्वथा अज्ञेय है ।
पूर्णसत्य केवलज्ञानका विषय है
परन्तु वास्तव में सत्य सर्वथा अज्ञेय नहीं है । सत्य अनेक धर्मोकी अनेक सत्यांशोंकी, अनेक तत्त्वोंकी व्यवस्थात्मक सत्ता है। उनमें से कुछ सत्यांश जो लौकिक जीवनके लिये व्यवहार्य हैं और जिन्हें जाननेके लिये प्राणधारियोंने अपनेको समर्थ बनाया है, इन्द्रियज्ञानके विषय हैं, निरीक्षण और प्रयोगों (Experiments) द्वारा साध्य हैं। कुछ बुद्धि और तर्क से अनुभव्य है, कुछ श्रु आश्रित हैं, कुछ शब्द द्वारा कथनीय हैं और लिपिवद्ध होने योग्य हैं । परन्तु पूर्णसत्य इन इन्द्रियग्रा, बुद्धिगम्य और शब्दगोचर सत्यांशों से बहुत ज्यादा है। वह इतना गहन और गम्भीर है - बहुलता, बहुरूपता और प्रतिद्वन्दों से ऐसा भरपूर है है कि उसे हम अल्पज्ञजन अपने व्यवहृत साधनोंद्वारा - इन्द्रिय निरीक्षण, प्रयोग, तर्क, शब्द आदि द्वारा - जान ही नहीं सकते । इसीलिये वैज्ञानिकों के समस्त परिश्रम जो इन्होंने सत्य रहस्यका उद्घाटन करने के लिये आज तक किये हैं, निष्फल रहे हैं । सत्य आज भी अभेद्य व्यूहके समान अपराजित खड़ा हुआ है।
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