Book Title: Anekant 1939 11
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 14
________________ १२ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण र भी शामिल हैं। प्राप्त हुआ। यह सब वर्णन अथवा ग्रंथावतार कथन इन्द्रनन्दी और विबुध श्रीधरके श्रुतावतारोंकीबहिरंग यहाँ धवल और जयधवल के आधार पर उनके वर्णसाक्षीपरसे भी कुछ विद्वानोंको भ्रम हुअा जान पड़ता नानुसार ही दिया जाता है । है; क्योंकि इन्द्रनन्दीने "इतिषण्णाँ खण्डाना...टीका धवल के शुरूमें, कर्ताके 'अर्थकर्ता' और 'ग्रन्थकर्ता' विलिख्य धवलाख्याम्" इस वाक्य के द्वारा धवलाको ऐसे दो भेद करके, केवलज्ञानी भगवान महावीरको छह खण्डोंकी टीका बतला दिया है ! और विबुध श्रीधर- द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-रूपसे अर्थकर्ता प्रतिपादित किया ने 'पंचखंडे षट्खंड संकल्प्य' जैसे वाक्यके द्वारा है और उसकी प्रमाणता में कुछ प्राचीन पद्योंको भी धवलामें पाँच खण्डोंका होना सूचित किया है। उद्धृत किया है । महावीर-द्वारा-कथित अर्थको गोतम इस विषयमें मैं सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ गोत्री ब्राह्मणोत्तम गौतमने अवधारित किया, जिसका कि इन ग्रंथकारों के सामने मूल सिद्धान्तग्रंथ और उनकी नाम इन्द्रभूति था । यह गौतम सम्पर्ण दुःश्रुतिका पार प्राचीन टीकाएँ तो क्या धवल और जयधर्वल ग्रंथ तक गामी था, जीवाजीव-विषयक सन्देहके निवारणार्थ मौजद नहीं थे और इसलिये इन्होंने इस विषय में जो श्रीवर्धमान महावीरके पास गया था और उनका शिष्य कुछ लिखा है वह सब प्रायः किंवदन्तियों अथवा सुने- बन गया था। उसे वहीं पर उसी समय क्षयोपशम-जनित सुनाये आधार पर लिखा जान पड़ता है । यही वजह है निर्मल ज्ञान-चतुष्टयकी प्राप्ति हो गई थी । इस प्रकार कि धवल-जयधवल के उल्लेखोंसे इनके उल्लेखोंमें कित- भाव-श्रुतपर्याय-रूप परिणत हुए इन्द्रभति गौतमने महावीरनी ही बातोंका अन्तर पाया जाता है, जिसका कुछ परि- कथित अर्थकी बारह अंगों-चौदह पूर्वोमें ग्रन्थ-रचना की चय पाठकोंको अनेकान्तके द्वितीय वर्षकी प्रथम किरण और वे द्रव्यश्रुतके कर्ता हुए। उन्होंने अपना वह द्रव्यके पृष्ठ ७, ८ को देखनेसे मालूम हो सकता है और कुछ भाव-रूपी श्रुतज्ञान लोहाचार्यों के प्रति संचारित किया परिचय इस लेखमें आगे दिये हुए फुटनोटों आदिसेभी और लोहाचार्य ने जम्बस्वामीके प्रति । ये तीनों-गौतम, जाना जा सकेगा। ऐसी हालतमें इन ग्रंथोंकी बहिरंग लोहाचार्य और जम्बस्वामी-सप्तप्रकारकी लब्धियोंसाक्षीको खुद धवलादिककी अंतरंग साक्षी पर कोई से सम्पन्न थे और उन्होंने सम्पूर्ण श्रुतके पारगामी होकर महत्व नहीं दिया जासकता । अन्तरंग-परीक्षणसे जो केवलज्ञानको उत्पन्न करके क्रमशः निवृतिको प्राप्त बात उपलब्ध होती है वही ठीक जान पड़ती है। किया था। जम्बूस्वामीके पश्चात् क्रमशः विष्णु, नन्दिमित्र, षट खण्डागम और कषायमाभृतका उत्पत्ति अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रवाह ये पांच प्राचार्य अब यह बतलाया जाता है कि धवलके मूलाधार- चतुर्दश-पर्व के धारी अर्थात् सम्पर्ण श्रुतज्ञान के पारगामी भूत 'षटखंडागम' की और जयधवल के मूलाधाररूप हुए। 'कषायप्राभूत' की उत्पत्तिकैसे हुई-कब किस प्राचार्य- धवल के 'वेदना' खण्डमें भी लोहाचार्यका नाम महोदयने इनमेंसे किस ग्रंथका निर्माण किया और उन्हें दिया है । इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें इस स्थान पर तद्विषयक ज्ञान कहाँसे अथवा किसक्रमसे (गुरुपरम्परासे) सुधर्म मुनिका नाम पाया जाता है।

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