Book Title: Anant Akash me Author(s): Atmadarshanvijay Publisher: Diwakar Prakashan View full book textPage 7
________________ (C) लेखकीय) काल का रूप तो परिवर्तित होता ही रहा है परन्तु आमन्त्रित विदेशी विकृतिओं ने तो भारतीय जन-मानस पर वासनाओं के हंटर बरसा दिये हैं ... जब सन्तों को बचना भी कठिन हो तो नई-पीढ़ी के सन्तान इस हंटर मार को कैसे झेल सकते हैं ? कहाँ है ? आज की नई पीढ़ी के पास कालिदास और ऋषभदास की कविता ? श्री हेमचन्द्राचार्य और शंकराचार्य की विद्वता ? राणा प्रताप और भगतसिंह की शूरवीरता ? पद्मिनी और सीता की शीलवत्ता ? कहाँ है-वस्तुपाल और तेजपाल कहाँ है विवेकानन्द ? कहाँ है अरविन्द ? कहाँ है सुभाषचन्द्र ? कहाँ चन्द्रशेखर ? ये सब छीन लिया है." उस व्योम-मार्ग द्वारा गुप्त रूप से उतारी हई पंक्तिबद्ध टी. वी. श्रंखलाओं विकृत्तिओं की भरपूर बाढ़ में डुबते हुए किशोरो, युवाओं, बालकों को उबारने के लिए कुछ सन्त-महन्तों ने सजग होकर बीड़ा उठाया है। नई पीढ़ी के आक्सीजन युक्त संस्कार-प्राणों को पुनः जीवित करने के लिए उन्होंने प्रण किया है। जिसमें उन्होंने अपनी आध्यात्मसाधना को कुछ गौण किया निम्नस्तर की देशना पद्धति को अपनाना पड़ा। सिर पर कफन बाँधकर अनेक प्रकार के नये प्रयोगों द्वारा उन्होने तन-मन का ह्रास भी किया। प्रस्तुत सचित्र कथा-साहित्य भी इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये श्री गणेश कर रहा है, जो कि आज कल धीमी मन्द गति से आगे बढ़ रहा है। इस प्रसंग पर सुंदर चित्र और सुन्दर प्रिन्ट कार्य कर देने वाले "दिवाकर प्रकाशन" (आगरा) का (इसी दिशा में) प्रयत्न सराहनीय है। हिन्दी अनुवादक श्री संत दयाल को भी कैसे भुलाया जाय ? आशा है - पाठकगण, चित्रों को स्पर्श करेंगे (या श्रद्धा से दर्शन करेंगे)। कथायें तो पढ़ेगे ही किन्तु साथ-साथ उनसे कुछ शिक्षा (बोध) भी प्राप्त करेंगे। इसी कामना के साथजिनाज्ञा के विरुद्ध यदि कहीं लिखा गया हो तो मिच्छामि दुक्कडम् -श्री योगि-पाद-पदम रेणुः/मुनि आत्मदर्शन विजय २०५२ मद्रास/आराधना भवन Jain Education Intematonai For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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