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१५. देव बनना है या दिवालिया ? मानव में से हम फिर मानव बन सकते हैं। देव भी बन सकते हैं और पशु व नर्क के भव भी प्राप्त कर सकते हैं। विशिष्ट संघयण, सामग्री आदि के अभाव से हम तत्काल सिद्धगति प्राप्त नहीं कर सकते परन्तु तप-त्याग-वैराग्य एवं विरति आदि उच्च कक्षा के गुणों द्वारा उच्च कक्षा की देवगति तो अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि यह भी सम्भव न हो तो मानव देह से फिर मानव-भव प्राप्त करने के लिए दया-दान-न्याय-नीति आदि मानवीय गुणों की साधना तो कर ही सकते हैं। तभी हम मानव भव प्राप्त करने के लिए योग्य होंगे और यदि हम इतना भी नहीं कर सकते तो नर्क और पशु भवों के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इसी बात को सिद्ध करने वाला एक सरल-बोधदायक दृष्टान्त उत्तराध्ययन सूत्र के सातवे अध्याय में पिरोया गया है।
एक नगर में एक धनाढ्य सेठ थे। उनके तीनों पुत्र यौवन की दहलीज पर कदम रख रहे थे। सेठ ने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय किया। प्रत्येक पुत्र को एक-एक हजार सोनेया देकर अलग-अलग नगरों में व्यापार के लिए भेजा और उन्हें कुछ समय बाद लौटने के लिए कहा।
प्रत्येक पुत्र अलग-अलग नगर को पहुँचे। उनमें से एक ने सोचा-अवश्य पिताजी ने हमारी परीक्षा लेने के लिए हमे इस प्रकार भेजा है। अन्यथा जीवनभर बैठकर खाने लायक धन पिताजी के पास है तो उन्हें व्यापार के लिए हमें भेजने की कोई आवश्यकता न थी। अतः परीक्षा में उत्तीर्ण होकर पिताजी को प्रसन्न करना चाहिए। यह सोचकर बुद्धि बल से अलग-अलग व्यापार में उसने अपना धन लगाया और भोजनादि में केवल आवश्यकतानुसार व्यय करने लगा। इस प्रकार थोड़े ही समय में उसने मूलधन से कई गुना अधिक लाभ कमाया।
दूसरे पुत्र ने सोचा-हमारे पास धन तो खूब है, पर यदि उसे खर्चते रहे तो खतम होने में ज्यादा समय नही लगेगा। इसलिए मूलधन सुरक्षित रखकर व्यापर में जो भी लाभ हो, वो भोगना चाहिए। इस प्रकार व्यापार में अधिक ध्यान न देकर, मूल धन को सुरक्षित रखकर, लाभ से विशिष्ट भोजन-वस्त्र-आभूषण आदि के उपभोग में दिन व्यतीत करने लगा।
तीसरे (दुष्ट बुद्धि) पुत्र ने सोचा-समुद्र के जल के समान अथाह सम्पत्ति होने के बाद भी हमारे वृद्ध पिताजी को धन कमाने की सनक क्यों सवार हुई? कि हमें इतनी दूर व्यापार के लिए भेज दिया है। सचमुच, बुढ़ापे में आदमी सठिया जाता है-यह उक्ति मेरे पिताजी पर एकदम चरितार्थ हो रही है।
खैर धन कमाने के लिए माथापच्ची और मजदूरी कौन करे ? __मैं तो एक हजार सौनेया को मौज-मस्ती में उड़ा दूंगा। समुद्र में से एक बूंद पानी कम होने से समुद्र का परिमाण कम नहीं होता। पिताजी की अथाह सम्पत्ति में से एक हजार सौनेया खर्च होंगे तो तिजोरी खाली नहीं हो जायेगी। यह सोचकर वह अपना धन, जुआ, मांस, वेश्यादि सातों व्यसनों में उड़ाने लगा। अन्त में निश्चित समय पर वह घर पहुँच गया। अन्य दो पुत्र भी आ पहुंचे।
पिता ने क्रमशः प्रत्येक पुत्र का साक्षात्कार किया। मूल धन से अनेक गुना अधिक कमाकर लानेवाले पुत्र पर प्रसन्न होकर पिता ने उसको घर-व्यापार-कुटुम्ब परिवार आदि सब का मालिक बना दिया।
दूसरे पुत्र को घर-व्यापार में लगा दिया और मूल धन भी खर्च कर चुके तीसरे पुत्र को घर से निकाल दिया। बेचारा मजदूरी आदि करके कष्ट पूर्वक जीवन निर्वाह करने लगा। दूसरा पुत्र सुन्दर भोजनादि का अपभोग तो करता रहा, किन्तु प्रथम पुत्र की तरह संसार में यश-कीर्ति नहीं कमा सका।
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