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इस दृष्टान्त का उपनय बताते हुए सूत्रकार भगवान कहते हैं-
जमल माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे।
मूलच्चेएण जीयाणं नरगतिरिक्खताणं धुवं ७/१६ । हमें प्राप्त मनुष्य भव मूल धन है। उसके द्वारा की गई साधना से प्राप्त स्वर्ग और अपवर्ग लाभ है। और मूल धन (मनुष्य भव) को बरबाद करने से नर्क गति एवं तिर्यंच गति प्राप्त होती है।
जो लोग मांस-मदिरा आदि खाते हैं, महारंभ और महा परिग्रह में रत रहते हैं, पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या करते हैं और विश्वासघात करते हैं, वे दिवालियों की तरह मानव भव के मूलधन को सुरक्षित नहीं रख सकते बल्कि दिवालिया, बनकर नर्क गति को प्राप्त होते हैं। और फिर से मनुष्य भव प्राप्त करने के लिये अयोग्य हो जाते हैं। इसी प्रकार जो लोग अन्याय, अनीति, प्रपंच और षड़यन्त्र करते हैं-गूढ हृदय वाले होते हैं- चालाकी करते हैं वे (तीसरे पुत्र के समान) मनुष्य गति से दूर हो जाते हैं और पशुओं की योनिओं में बार-बार जन्म-मत्यु की धक्कापेल झेलकर दुःखी हो जाते हैं।
जो लोग विशिष्ट तपस्वी-त्यागी या वैरागी नहीं है वरन् सरल है-उनका क्रोध कम हो दान-दया आदि में रुचि रखते हैं अन्याय आदि नही करते है, ऐसे गुणवाले मनुष्य मानव भव के रूप में अपना मूल धन सुरक्षित रखते हुए दसरे जन्म में भी मनुष्य बनने की योग्यता रखते हैं। निजात
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