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अत्यन्त प्रसन्न होकर चन्द्रगुप्त, चाणक्य और पर्वत राजा ने जैसे ही नगर में प्रवेश किया, तभी सामने से आतं हुए रथ में से नन्द की पुत्री की नजर चन्द्रगुप्त पर पड़ी और वो उस पर मोहित हो गई। चतुर नन्द की नजरों से यह बात छिप न सकी। उसने पुत्री से कहा-"बेटी ! यदि तुम्हें चन्द्रगुप्त पसन्द हो तो तुम तुरन्त ही उसकी शरण में जाओ। सचमुच, राजपुत्रियाँ स्वयंवरा होती हैं। चन्द्रगुप्त के पास चली जाओ, ताकि तुम्हारे विवाह की चिन्ता मुझे न रहे।" पिता नन्द से अनुमति प्राप्त कर कन्या रथ से उतरकर चन्द्रगुप्त के पास पहुंची और ज्यों ही वो रथ पर चढ़ने लगी, त्यों ही रथ के नौ आरे टूट गये। “यह कन्या अमंगलकारी है।" यह सोचकर चन्द्रगुप्त उसको स्वीकार करने से मना करता है। परन्तु चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को समझाते हुए कहा-"इस कन्या का निषेध मत करो। इस निमित्त से ऋद्धि-सम्पन्न नौ पीढ़ियों तक तुम्हारा वंश अखण्ड रहेगा" चन्द्रगुप्त ने कन्या को रथ पर बिठा लिया और तीनों लोग नन्द की सम्पत्ति प्राप्त करने नन्द के महल के अन्दर घुसे। वहाँ एक विष-कन्या थी। राजा नन्द उसे जन्म से ही विष देता था। सो उसके पूरे शरीर में विष-व्याप्त था।
इस बात से अज्ञात राजा पर्वत विष-कन्या पर मोहित हो गये। चाणक्य ने उसका अभिप्राय समझकर विषकन्या के साथ राजा पर्वत के विवाह की तैयारी करवा दी। पाणिग्रहण (संस्कार) के समय विष कन्या के हाथ द्वारा पर्वत राजा के शरीर में विष प्रवेश कर गया और वे अत्यधिक पीड़ा का अनुभव करने लगा। उसने चन्द्रगुप्त से कहा“मित्र ! मुझे बचाओ। मेरा कोई इलाज करो। मैं बेहोश हो रहा हूँ। मेरे अंग-अंग में जहर फैल रहा है।" यह सुनकर दयालु चन्द्रगुप्त ज्यों ही किसी गारुड़ी-वैद्य बुलाने का प्रयत्न करता है, त्यों ही चाणक्य ने संकेत से कहा-"इस राजा को तो बाद में भी मारना ही था। अब वह स्वयं मर रहा है तो उसकी चिकित्सा क्यों की जाये? यदि वह जीवित रहा तो आधा राज्य इसे देना पड़ेगा। अतः शान्त रहो।" इस प्रकार चाणक्य के संकेत से चन्द्रगुप्त शान्त रहा और थोड़ी ही देर में पर्वत राजा तड़प-तड़प कर मर गया। वास्तव में बिना भाग्य के किया गया प्रयत्न सफल नहीं होता, बल्कि कभी-कभी तो अनर्थ भी हो जाता है।
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