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म १४. तीर्थ की आशातना न करें
समूह में किया हुआ पापकर्म प्रायः समूह में ही उदय होता है। और समूह में किया हुआ पाप या पुण्य कर्म का बल एकदम बढ़ जाता है। जिसका फल भी उन कर्मों के उदय काल में प्रकृष्ट रूप से अनेक बार अनुभव होता है।
चक्रवर्ती सगर के पौत्र, भगीरथ का अयोध्या के सिंहासन पर राज्याभिषेक होने के बाद एक बार ज्ञानी भगवन्त नगर में पधारे। देशना के अन्त में भगीरथ ने नम्रतापूर्वक एक प्रश्न उनसे पूछा।
"भगवन्त ! मेरे पिता जह्न आदि साठ हजार बंधुओं ने किस दुष्कर्म के उदय से एक साथ अग्नि-शरण होकर आयु पूर्ण की?"
ज्ञानी भगवन्त ने उत्तर दिया
यह दुष्कर्म इस भव का नहीं है। किन्तु अनेक भव पूर्व का है। ये साठहजार बन्धु पूर्व के किसी भव में नीच जाति के मनुष्य थे और एक ही गाँव में साथ-साथ रहते थे।
एक बार उस गाँव के निकट के जंगल से छहरिपालित संघ सम्मेतशिखर की तीर्थ यात्रा को जा रहा था।
सूचना मिलते ही इन साठ हजार मनुष्यों ने एक साथ छापा मारकर संघ को लूट लिया। संघ के यात्री तितर-बितर होकर भागने लगे। उस समय गाँव में रहने वाले एक कुम्हार ने उन साठ हजार मनुष्यों को ऐसा न करने के लिए बहुत समझाया। किन्तु वे समझे नहीं। अन्त में संघ तो एक तरफ रहा, लुटेरे लूट-पाट करके अपने गाँव वापिस आ गये।
एक बार की बात है।
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