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संध्या समय कोणिक की सेना का सेनापति “काल" जैसे ही निकट आया, चेटक ने उस अमोघ बाण को उस पर छोड़ दिया। बाण ने उसके शरीर को बींध दिया और वह तत्काल मर गया। सूर्यास्त होते ही युद्ध विराम हो गया।
दसरे दिन सेनापति नियक्त हए कोणिक के दूसरे भाई महाकाल को भी राजा चेटक ने उसी प्रकार मार गिराया। इस प्रकार दस दिन में दसों भाईयों को चेटक ने मार गिराया। शोकग्रस्त कोणिक सोचने लगा कि चेटक के दिव्य बाण के विषय में न जानकर, मैंने व्यर्थ में ही काल आदि दस भाईयों को गँवा दिया। और यदि में समय रहते सावधान न हुआ तो कल मेरी भी यही दशा होगी। यह सोचके कोणिक देवता की आराधना में लीन हो गया। पूर्वभव के किसी ऋण से शक्रेन्द एवं चमरेन्द्र कोणिक के पास आये। शकेन्द्र ने कहा-“कहो कोणिक तुम्हें क्या चाहिए ?"
"चेटक के प्राण।"-कोणिक ने उत्तर दिया।
"नहीं यह असम्भव है। साधर्मिक और श्रावक चेटक की हत्या हम नहीं कर सकते, किन्तु युद्ध में तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे।
यह कहकर शक्रेन्द्र ने उसकी रक्षा का वचन दिया जब कि चमरेन्द्र ने कोणिक को दो युद्ध दिये। पहला युद्ध "महाशिला कंटक" नामक था, जिससे शत्रु पक्ष की तरफ कंकर फैंके जाये तो विशाल शिलायें बनकर गिरते हैं
और काँटे फैंके जाये तो महाशस्त्र बनकर शत्रु पक्ष का नाश कर देते हैं। दूसरे युद्ध का नाम "रथादिमुशल" था, जिसमें सारथि बिना ही शत्रु पक्ष की तरफ रथ और मुशल छोड़े जाये तो शत्रु सेना बुरी तरह परास्त हो जाती है। दोनों युद्धों को प्राप्त कर दुष्ट कोणिक, युद्ध भूमि में आया और चमरेन्द्र द्वारा प्राप्त दो युद्धों से जिस प्रकार खई से दही बिलोया जाता है, उसी प्रकार वह चेटक की सेना को बिलोने लगा। केरी के कचूमर की तरह वह सेना को कचलने लगा। अपनी सेना का ऐसा भयंकर संहार देखकर क्रोधित राजा चेटक ने दिव्य बाण को कान तक खींचकर कोणिक की तरफ छोड़ा। स न न न न न पर व्यर्थ क्योंकि उससे पहले ही शक्रेन्द्र ने कोणिक के सामने वन की दीवार खड़ी कर दी। चेटक का दिव्य बाण उस पारदर्शक दीवार से टकराकर नीचे गिर गया। एक दिन में केवल
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