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क्षमा कर दीजिये।" कृष्ण के ऐसा कहने के पश्चात् भी-अशान्त और असीमित क्रोध वाले द्वैपायन ने कहा-"अरे कृष्ण ! तुम्हारे मधुर वचनों से अब कुछ नहीं होगा। तुम दोनों के सिवा नगरजनों सहित सम्पूर्ण नगरी को जला देने का मैंने संकल्प किय
संकल्प को बदलने की शक्ति किसी में भी नहीं हैं। चले जाओ यहाँ से आग लगी हो तब कुंआ खोदने की मूर्खता-भरी चेष्टा मत करो।" बलराम ने भी श्रीकृष्ण को समझाते हुए कहा-“भाई ! प्रभु के वचनों को परिवर्तित करने की शक्ति किसी में भी नहीं हैं। इस योगी को समझाने के बजाये हमें वापस जाना चाहिए।"
शोक से व्याकुल होकर दोनों वापस आ गये। दूसरे दिन श्रीकृष्ण ने द्वैपायन के संकल्प की घोषणा नगर में करवायी। और नगरजनों को धर्मारााधना में विशेष रूप से (लीन) तत्पर रहने के लिए कहा। ___एक बार नेमि प्रभु गिरनार पर्वत पर पधारे। मोहहर एवं मनोहर देशना सुनकर शांब प्रद्युम्न आदि अनेक कुमारों और रुक्मिणी आदि यदुवंश की अनेक स्त्रियों ने प्रभु से प्रव्रज्या ग्रहण की और दोनों लोकों (उभय लोक) के कष्टों से मुक्त हुए।
समय कृष्ण वासुदेव खड़े हुए एवं हाथ जोड़कर प्रभु से पूछा-"प्रभु ! कितने समय बाद द्वैपायन द्वारा द्वारका में उपद्रव होगा?" "द्वैपायन बारह वर्ष बाद द्वारका को जलायेगा।" इतना कहकर प्रभु विहार करने अन्य स्थान को चले गये।
द्वारका जाकर फिर से उद्घोषणा करवायी और दया-दान-ब्रह्मचर्य-अचोर्य एवं आयंबिल का तप आदि अनुष्ठान नगरजनों को विशेष रूप से करते रहने के लिए कहा। नगरजन भी सावधान होकर देव-पूजा, आयंबिल का तप आदि धर्माराधनाा में विशेष रूप से लीन रहने लगे।
द्वैपायन ऋषि भी संकल्प पूर्वक मरकर अग्निकुमार देव बने। पूर्वभव के वैर याद करके वे द्वारका में आये। किन्त नगरजनों की विशेष धर्माराधना के समक्ष उनकी शक्ति काम नहीं आ सकती थी। इसलिए नगरजनों की कमजोरियाँ तलाशते हुए वे वहीं (आकाश में) भटकने लगे।
इधर नगरजनों ने सोचा कि “तप के प्रभाव से द्वैपायन भाग गये हैं।" और उन्होंने बारह वर्ष पूरे होने के बाद तपस्या आदि छोड़कर पूर्व की भाँति मदिरा, माँस आदि का सेवन करना आरम्भ कर दिया तथा धर्म निरपेक्ष एवं स्वच्छन्द रूप से बर्ताव करने लगे।
द्वैपायन देव भी इस कमजोरी को पाकर प्रसन्न हुए। उस समय द्वारिक नगरी में विनाश का संकेत देने वाले उत्पात होने लगे। बलराम और कृष्ण के हल एवं चक्र आदि रत्नों का नाश हुआ। तत्पश्चात् द्वैपायन देव ने संवर्त-वायु उत्पन्न करके, लकडी, पत्ते, घास आदि से पूरे नगर को पाट दिया। अनेक प्रकार के उत्पात देखकर सारे नगर में हड़कम्प मच गया। नगरजनों को नगर का विनाश अब निकट प्रतीत होने लगा। भयभीत होकर नगरजन द्वारका छोड़कर भागने लगे। किन्तु द्वैपायन ने महा वायु उत्पन्न करके पलायन करते हुए नगरजनों को उठा-उठा कर नगर के अन्दर बन्द कर दिया। नगर के द्वार बन्द करके नगर के अन्दर और नगर के बाहर रहे करोडों यादवों को एकत्रित करके द्वैपायन ने आग लगा दी। चारो तरफ आग लग गई। आग बुझ न जाये इसलिए द्वैपायन (सुराधम) उसमें वृक्ष एवं लतायें भी डालते गये। पूरे नगर में इतना धुआँ फैल गया कि लोग एक-दूसरे को देख भी नहीं पा रहे थे। अंधों के समान एक भी कदम खिसकने के लिए लोगों में शक्ति नहीं थी। बच्चों की चीखें, युवाओं का शोर, स्त्रियों की पुकार एवं वृद्धों के आक्रन्द से वातावरण अत्यन्त शोकमय एवं करुणामय हो उठा। स्वर्ण एवं रनों से सुशोभित प्रासाद राख में बदलने लगे। एक दूसरे से लिपटे हुए असहाय परिजन अग्नि का ग्रास बनने लगे। ऊँची हवेलियों की दीवारें और छतें जमीन पर गिरने लगीं। कड़-कड़ की आवाज करती विशाल इमारत एवं अग्नि-ज्वालाओं की ब्रह्माण्ड-सी भयंकर आवाजों से ऐसा प्रतीत होता था मानो आकाश-पाताल एक हो गया हो। शस्त्रागार भस्मागारों में बदलने लगे। स्वयं मालिक ही अग्नि का ग्रास होने लगे तो प्राणियों की क्या औकात? हाथी, घोड़े सहित हस्तिशालायें एवं अश्वशालायें भी इन भयानक क्षणों में राख होने लगीं। सारी नगरी में विनाश का दैत्य नृत्य करने लगा।
पूरी (सारी) द्वारका नगरी को अग्नि-ज्वालाओं से आच्छादित देखकर, अत्यन्त व्याकुल होकर श्रीकृष्ण एवं बलराम ने तुरन्त ही पिता वसुदेव, माता देवकी तथा रोहिणी को महल से बाहर निकालकर रथ पर बिठाया और नगर के बाहर जाने के लिए रथ को हाँकना शुरू किया। किन्तु द्वैपायन द्वारा स्तंभित किये हुए घोड़े एक कदम भी आगे बढ़ने में असमर्थ थे। तब बलराम एवं कृष्ण घोड़े के स्थान पर स्वयं रथ खींचने लगे। युद्ध में अर्जुन के सात अश्व युक्त रथ के सफल सारथि कृष्ण को स्वयं अश्व का स्थान लेना पड़ा" समय की कैसी विचित्रता !!!
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