Book Title: Anant Akash me
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 17
________________ अतः एक माँ की तरह उसकी देखभाल करना।''-इस प्रकार आकाश एवं कृष्ण की ओर बार-बार देखते हुए बलराम पानी की खोज में आगे बढ़े। अपने हाथों होने वाली कृष्ण की मृत्यु की भविष्यवाणी नेमि प्रभु के मुख से सुनकर जराकुमार बारह वर्ष से व्याघ्रचर्मं धारण करके जंगल में भटक रहा था। उसने दूर से ही पैर के उपर पैर चढ़ाकर सोये हुए कृष्ण को मृग समझा और निशाना लगाकर एक बाण छोड़ा। स न न न न न बाण, कृष्ण के पैर को आर-पार बींध गया। श्रीकृष्ण अचानक हड़बड़ाकर उठे और बोले-“अरे ! मुझ निरपराधी (निर्दोष) को किसने मारा ? आज तक किसी ने भी मुझ पर विश्वासघात से वार नहीं किया है ?" दूर स्थित जराकुमार को (न पहचानने पर) कृष्ण ने सम्बोधित करते हुए कहा-“अरे ! तुम कौन हों ? अपना नाम और गोत्र तो बताओं ?" दूरस्थ जराकुमार झाड़ियों में से निकलकर बोला-“मेरे पिता वसुदेव एवं माता जरा हैं और कृष्ण-बलराम का मैं सगा भाई हूँ। श्री नेमिनाथ के वचन सुनकर कृष्ण-रक्षा के लिए बारह वर्ष से इस जंगल में रहते हुए मैंने किसी मनुष्य को नहीं देखा। हे भद्र पुरुष ! आप कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? ये बताऐंगे?" । तब कृष्ण ने कहा-“आओ भाई ! मैं ही तुम्हारा भाई कृष्ण हूँ। जिसकी रक्षा के लिए बारह वर्ष से तुम इस जंगल में भटक रहे हो।" _यह सुनकर जराकुमार कृष्ण के निकट आया। कृष्ण को देखते ही जैसे उसके हृदय पर वज्रपात हुआ हो और वह चेतनाशुन्य होकर धरती पर लुढ़क गया। जैसे-तैसे चैतन्य पाकर जराकुमार करुण आक्रन्द करते हुए बोला"कृष्ण ! आप यहाँ कैसे? क्या वास्तव में द्वैपायन ने यदुओं सहित द्वारका को जला डाला? क्या नेमि प्रभु की वाणी सत्य सिद्ध हुई?" मा कृष्ण ने द्वारका-दहन का पूरा वृतान्त उसको सुनाया। 'जराकुमार आज तक मेरी रक्षा के लिए किये गये तुम्हारे सारे प्रयत्न व्यर्थ हुए हैं। क्योंकि प्रभु ने जैसा कहा था, वैसा ही हो रहा है।" द्वारका-दहन का हृदय-विदारक वृतान्त RECENTR ★९★ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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