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७. धर्म-खुमारी (धर्म-शौर्य) मथुरा नगरी के राजा का पुरोहित इन्द्रदत्त अपने महल के गवाक्ष में बैठा था। तभी उसने थोड़ी दूर से आते हुए एक जैन साधु को देखा। पुरोहित साधु-द्वेषी था। जैसे ही वो साधु वहाँ से गुजरने लगे, द्वेष बुद्धि से पुरोहित ने उसके मस्तक पर आये उस तरह खिड़की से पैर लटका दिया।
महात्मा तो इस अपमान को मन पर लाये बिना अपने स्थान को पहुँच गये।
परन्तु इस नगरी के नगर सेठ पक्के श्रावक (धर्मात्मा) थे। पुरोहित द्वारा हुए मुनि के अपमान से उनका रोंया-रोंया क्रोध से सुलगने लगा।
उन्होंने प्रण किया-साधु-द्वेषी इस पापात्मा का पैर यदि मैंने नहीं कटवाया तो मेरा धर्म एवं जन्म दोनों व्यर्थ हैं।
इस दुष्ट का पैर कटवाकर ही रहूँगा-मनोमन यह प्रण करके सेठ हमेशा पुरोहित की कमजोरियाँ तलाशने लगा। पर कई दिनों तक ऐसी कोई भी कमजोरी नजर न आने से नगर सेठ उपाश्रय में विराजमान किसी आचार्य भगवन्त के पास गये और अपने प्रण के विषय में उन्हें बताया तब आचार्य भगवन्त ने सेठ से कहा-“श्रावकजी ! सहन करना तो हमारा धर्म है। सम्मान और अपमान के अवसरों में समभाव रहना ही हमारी साधना है। अतः ऐसा प्रण करने की कोई आवश्यकता न थी।" ।
तब सेठ ने कहा-“प्रभु ! मुनि का जो अपमान हुआ, मुझसे देखा नहीं गया। इसी कारण मैंने यह प्रण किया है। गुरुदेव ! साधु के अपमान का फल यदि इस पुरोहित को नहीं दिया गया तो अन्य नगरवासी भी बेशर्म होकर साधुओं की उपेक्षा करेंगे जो कि हम लोगों के लिए लांछन होगा। क्योंकि साधु का अपमान धर्मशासन का अपमान हैं, इसलिए कृपया करके कोई उपाय बताइये, अन्यथा प्रण पूरा किये बिना मैं चैन से कैसे जी सकता हूँ? ऐसा जीवन किस काम का? जो धर्म की अवहेलना न टाल सका?"
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