Book Title: Anant Akash me
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 33
________________ एक दिन गुरुदेव शिष्यों को आगम-शास्त्र का पाठ दे रहे थे जिसमें जिन कल्पिक (विशिष्ट तपोव्रत धारक) महात्माओं का वर्णन था। जिन कल्पी दो प्रकार के होते हैं- एक सवस्त्र और दूसरे निर्वस्त्र । यह सुनकर शिवभूति मुनि बोले - “निष्परिग्रही कहे जाने वाले आजकल के साधुओं में तो जिनकल्पिक व्रत दृष्टिगोचर होता नहीं है ? सूरीदेव बोले-“अभी भरत-क्षेत्र में विशिष्ट सत्त्व के अभाव में जिनकल्प व्रत स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रभू महावीर के प्रशिष्य श्री जम्बूस्वामी के निर्वाण पश्चात् जिन कल्प भी अस्त हो गया है। वर्तमान में उसका आचरण सम्भव नहीं है।" स्वच्छन्द मति शिवभूति मुनि बोले- "यह बात तो सत्त्व रहित साधुओं के लिए है मुझ जैसे सात्विक, (सत्त्वशाली) के लिए तो ये बाये हाथ का खेल है। यदि मुक्ति ही प्राप्त करनी है तो वस्त्र और पात्र का परिग्रह क्यों ? वस्त्र और पात्र से भी मुक्त हो जाना चाहिए? Ww.10393 "" आचार्य भगवन्त ने समझाया- “ " वत्स ! वस्त्र और पात्र तो धर्म में सहायक होते हैं अतः वे धर्मोपकरण कहलाते हैं। और मूर्च्छा रहित धर्मोपकरण पास रखना जिनेश्वर भगवन्तों ने गलत नहीं कहा है। मोक्ष-प्राप्ति म विघ्न केवल लोभ करता है, वस्त्र पात्रादि नहीं। यदि रजोहरण और मुहपत्ति जीव रक्षा के लिए आवश्यक हैं तो भोजन करते हुए कोई जीवहत्या न हो, इस लिए पात्र भी आवश्यक हैं। फिर सरदी गरमी - मच्छर आदि के उपद्रव से बचने के लिए वस्त्र धारण करना अति आवश्यक है अन्यथा दुर्ध्यान होकर जीव सम्यक्त्वादि से स्खलित होकर अपनी दुर्गति करा ले तो कोई नई बात नहीं । " Jain Education International इस प्रकार, वस्त्र - पात्रादि धर्म-जीवन के लिए उपयोगी है, जिन्हें रखना मुनि के लिए गलत नहीं है। बल्कि रत्नत्रयी आराधना में वे विशेष उपयोगी होते हैं। हाँ प्रथम संघयण वाले महासत्त्वशाली (महासत्त्वयुक्त) ★२५ ★ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/

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