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एक बार उसकी पत्नी अपने भाई के विवाह में मायके गई । किन्तु सादे वस्त्र और आभूषण रहित उसकी अवस्था देखकर किसी ने उसका अच्छी तरह स्वागत नहीं किया। उसकी अन्य बहनों का विवाह श्रीमन्त ब्राह्मणों से हुआ था, अतः उनका अच्छा स्वागत होता देखकर चाणक्य पत्नी मन ही मन दुःखी हो गई। जैसे-तैसे विवाह निपटाकर वो उदासीन अवस्था में घर लौटी। उसके मुख पर उदासी देखकर चाणक्य ने उदासी का कारण पूछा। लेकिन वो कुछ बोली नहीं। उसकी आँखों से बूँद-बूँद आँसू टपकाती रही। चाणक्य के अति आग्रह के वश होकर उसने मायके में हुए अपने अनादर की बात खुलकर कही । तब चाणक्य सोचने लगा
" वास्तव में निर्धनता मनुष्य के लिए जीवित मृत्यु के समान है।" मनुष्य कितना भी कलावान, दानवीर, यशस्वी या सुन्दर हो, पर यदि उसके पास धन नहीं है तो संसार की नजरों में वो क्षीण चन्द्र-सा कान्तिहीन है।
“सुना है कि राजा नन्द ब्राह्मणों को बहुत धन देते हैं। अतः वही जाना चाहिए।" यह सोचकर बुद्धिमान चाणक्य पाटलीपुत्र के राजा नन्द की सभा में जा पहुँचा। और अगली पंक्ति के अनधिकृत आसन पर जा बैठा ।
चाणक्य को देखकर किसी सिद्ध पुरुष ने उच्च स्वर में कहा - " यह ब्राह्मण नन्द वंश से भी अधिक उन्नति करेगा।" अर्थात् नंद वंश को ओवरटेक करेगा।
चाणक्य को नन्द के सिंहासन पर बैठे देखकर राजा की एक दासी ने हाथ जोड़कर चाणक्य से नम्रतापूर्वक कहा“भूदेव ! बगल के सिंहासन पर बैठो। यहाँ नहीं ।" -तब चाणक्य ने उसकी बात को हँसकर टाल दिया। इतना ही नही उसने दूसरे सिंहासन पर अपना कमंडल रखा। तीसरे पर दण्ड (छड़ी), चौथे पर रुद्राक्षन की माला और पाँचवे पर ब्राह्मसूत्र (जनेऊ) रख दी और लापरवाही से नाटयात्मक मजाक करने लगा। ऐसी ढिठाई देखकर दासी ने चाणक्य को लात मारकर उठा दिया।
दासी से अपमानित होकर चाणक्य ने वही सबके सामने प्रण करते हुए कहा - "धन-भंडार और बंधु आदि से जिसकी जड़ें गहराई तक गई हैं, और पुत्रों व मित्रों से जिसकी शाखायें बहुत पसर चुकी हैं, ऐसे नन्द-वंश के
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