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वास्तव में प्राप्त सम्यग् धर्म भी अनादि (पुराने) कुसंस्कारों से जीव किस प्रकार खो देता है-यह उसका सचित्र दृष्टान्त है। कुछ लोगों के कुकर्म तो इतने अधिक खराब होते हैं कि वे अपने साथ अनेकों को विचलित करके धर्मभ्रष्ट कर देते हैं। जिसमें होने वाले वंश परंपरागत नुकसान तो जैन-जैनेत्तर समाज में आज भी स्पष्ट दृष्टिगोचर (होते) हैं।
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