Book Title: Anant Akash me
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ महापुरुष वस्त्र-पात्रादि के बिना जिनकल्प व्रत स्वीकार कर सकते हैं। किन्तु वर्तमान में ऐसी संघयण-शक्ति न होने से हमारे लिए ऐसा जीवन सम्भव नहीं है। अर्थात् हमारे लिए वस्त्र-पात्रादि आवश्यक हैं। इसप्रकार गुरु भगवन्त के बहुत समझाने के बाद भी स्वच्छन्दी शिवभूति मुनि ने अपना पूर्वग्रह न छोड़ा। और अन्त में वस्त्र एवं पात्र का त्याग करके, नग्न होकर अकेले ही वे नगर के बाहर स्थित उद्यान में चले गये। मुनि शिवभूति का गृहस्थी के दौरान जैसा स्वच्छन्द जीवन था, निमित्त मिलते ही वैसी वृत्ति और प्रवृत्तियाँ यहाँ भी जागृत हो गई। शायद ऐसे ही किसी कारण से कृष्णाचार्य ने उनको दीक्षा देने से मना किया होगा। किन्तु भाग्य बलवान होता है जिससे सूरीदेव ने उसे साधु वेश प्रदान किये। चाहे कुछ भी हो-तब से शिवभूति ने अपना अलग मत आरम्भ कर दिया था और उनको एकाकी (अकेले) जानकर उनकी बहन-साध्वी भी उनके पास आ गई। वह भी निर्वस्त्र हो गई। जब वो दिगम्बर-साध्वी गाँव में भिक्षा के लिए गई तो उसकी नग्नावस्था देखकर नगर की एक वेश्या सोचने लगी कि हमारे अंग भी यदि वस्त्रों से आच्छादित हो तो ही हमारा गर्व है। अन्यथा स्त्री शरीर के अंग इतने बिभत्स होते हैं कि लोग घृणा किये बिना नहीं रह सकते। यदि यह साध्वी इसी प्रकार नगर में घूमती रही तो लोग हमारे पास आना बन्द हो जायेंगे। हमारा धन्धा खत्म हो जायेगा, यह सोचकर वेश्या ने दासीयों द्वारा बलपूर्वक उत्तरा साध्वी को वस्त्र पहना दिये। फिर भी उत्तरा साध्वी वस्त्र धारण करना नहीं चाहती थी। अतः उसने शिवभूति के पास जाकर सारी बात बताई। शिवभूति बोले-स्त्रियों के लिए वस्त्र धारण करना गलत नहीं है। यह कहकर उन्होंने साध्वी को वस्त्र धारण करने की स्वतन्त्रता दी। इसप्रकार श्री वीर-शासन की अनेक नीतियों से प्रतिकल रहने वाला दिगम्बर मत शिवभूति ने आरम्भ किया। उनके कोडिन्न और कोहवीर नामक दो विद्वान शिष्य भी हुए। *२६★ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66