Book Title: Anant Akash me
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 32
________________ कृष्णाचार्य ने दीक्षा देने से मना कर दिया। अतः शिवभूति ने स्वयं अपने हाथों से केशलुचन किया। तब गुरुजी ने उसको रजोहरण आदि साधु-वेष दिये। उसको दीक्षित हुआ जानकर प्रातः राजा उपाश्रय में आये और उसको झिडकते हुए कहा - " मुझसे पूछे बिना व्रत स्वीकार क्यों किया ?" शिवभूति ने कहा- “ आपने मुझे सब प्रकार की स्वतन्त्रता का वरदान दिया है। अतः मैंने व्रत स्वीकार किया और उसमें आपकी आज्ञा शामिल है।" यह सुनकर द्रवित राजा मुनि को प्रणाम कर लौट गया। आचार्य महाराज ने मुनिमंडल के साथ वहाँ से अन्य स्थान को विहार के लिए प्रयाण किया । बहुत समय बाद विहार करते-करते आचार्य भगवन्त वापस उस नगर में आ पहुँचे। तब राजा शिवभूति मुनि को अत्यन्त प्रेम से अपने महल में ले गये और मुनि के मना करने के बावजूद भी उनको एक मूल्यवान रत्न-कंबल भेट दिया। शिवभूति कंबल लेकर उपाश्रय को आये, तब आचार्य भगवन्त ने स्नेह से उनको झिड़कत हुए कहा- " वत्स ! तुम्हें पता है न ? हम लोग बहुमूल्य बस्त्रादि नहीं रख सकते? " इसप्रकार आचार्य भगवन्त द्वारा हित शिक्षा मिलने के बावजूद भी शिवभूति मुनि ने रत्न-कंबल का मोह नहीं त्यागा और उसे कहीं छिपा दिया। इस मोह से शिवभूति मुनि विराधक न हो जाये यह सोचकर जब शिवभूति मुनि कहीं बाहर गये, तब आचार्य भगवन्त ने उस रत्न-कंबल को ढूंढकर उसे चौकोर टुकड़े करके प्रत्येक मुनि को बैठने का एक-एक आसन दे दिया। यह बात जानकर शिवभूति मुनि को बहुत दुःख हुआ और गुरुजी के प्रति आक्रोश रखते हुए वह आचार्य महाराज की कमजोरियों तलाशने लगा। Jain Education International ★ २४ ★ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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