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इस प्रकार पुरोहित की करुण वाणी सुनकर दयालु सेठ ने उसे छोड़ दिया। जैनों की यह अद्भुत विशेषता है कि वे क्रोधित भी हो तो शीघ्र ही करुणामय हो जाते हैं।
जिसके रोये-रोये में धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा थी ऐसे सेठ का प्रण पुरोहित को मुक्त करने से अधूरा रह जाता। इसलिए सेठ ने पुरोहित की आटे की प्रतिमा बनवाई और इस प्रतिमा का पैर काटकर उसका प्रण पूरा किया।
धर्म के लिए मुक्त मन से धन खर्च करने वाले बहुत हैं। किन्तु समय आने पर धर्म के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाले बहुत कम हैं।
धर्म रक्षा, तीर्थं रक्षा, संस्कृति रक्षा या देश रक्षा, समस्या कोई भी हों, जब तक इन क्षेत्रों में सत्य के दृढ़ समर्थक नहीं होंगे, तब तक देश की सु-संस्कृति नहीं बनेगी।
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