Book Title: Anant Akash me
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 19
________________ द्वारका की समृद्धि, द्वारका-दहन और उपायन का क्रोध आदि उनके मानस पटल पर बार-बार आने लगा। "मेरी सर्वनाश की जड द्वैपायन ही हैं। जिसने मेरी यह दर्दशा की। आज से पहले कोई मनष्य या देव भी मझे परास्त नही कर सका था। यदि वो दुष्ट द्वैपायन अभी मेरे सामने आ जाये तो उसका पेट चिरकर द्वारका की सारी समृद्धि उसमें से निकाल दूं।" इसप्रकार तीव्र रोद्र ध्यान के अभ्यास से कृष्ण की आत्मा ने हजार वर्ष की आयु पूर्ण करके तीसरे नर्क की ओर प्रस्थान किया। ★ महायुद्धों में अकेले ही अनेकों को परास्त करने वाले कृष्ण जैसे महायोद्धा को सगे भाई के हाथों अत्यन्त तृषातुर अवस्था में मृत्यु प्राप्त हुई। ★ जिसकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति हो जाती है, ऐसे पुण्यवान को वन में मरते समय कोई पानी पिलाने वाला भी न था। ★ सोने की द्वारका के स्वामी को वन में कष्ट झेलते हुए भटकना पड़ा। ★ हमेशा मणि-रत्नों के बहुमूल्य वस्त्र भरण धारण करने वाले को तन ठकने के लिए केवल एक पिताम्बर से काम चलाना पड़ा। ★ जिसके एक ही संकेत से हजारों सेवक सेवा में उपस्थित हो जाते हों एसे महापुरुष को घने जंगल में अकेले ही मृत्यु को स्वीकार करना पड़ा। * कमल-सी कोमल एवं नरम शय्या पर सोने वाले को मृत्यु के समय जंगली घास एकत्रित करके खुरदरी शय्या पर सोना पड़ा। कर्म का उदय कब और कैसे जीव पर झपटता हैं, उसका यह जीवंत सत्य दृष्टान्त हमें सजग करने के लिए काफी नहीं हैं क्या? कर्म का न्याय सब के लिए समान हैं। चाहे कृष्ण की आत्मा हों या महावीर की। चाहे एक अदना आदमी हो या महान मनुष्य सब को स्वकृत कर्मों के अनुसार दंड भुगतना पड़ता है। । इसके बाद की कथा में तृषातुर कृष्ण के लिए पानी की खोज में गये बलराम जब पानी लेकर कृष्ण के पास लौटते हैं, तब की घटनाओं और बन्धु के प्रति असीमित अनुराग दर्शानेवाली विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया 功h5 听听F 牙岁男 ★११★ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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