Book Title: Anant Akash me
Author(s): Atmadarshanvijay
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 15
________________ "हे राम ! हे केशव ! हे पराक्रमी ! हे यादवेश्वर ! अग्नि के इस उपद्रव से हमें बचाओ, हमारी रक्षा करो। "-इस प्रकार नगरजनों का करुण आक्रन्द सुनते हुए, बलदेव और कृष्ण, माता-पिता का रथ खींचते हुए नगर के मुख्य द्वार तक आ पहुँचे और द्वैपायन द्वारा बन्द किये हुए उस द्वार को पैरों के प्रहार से तोड़कर रथ को बाहर निकालने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु रथ बाहर नहीं निकल सका, मानो कीचड़ में फँस गया हो। तब आकाशस्थ द्वैपायन बोला- "हे मैं कृष्ण तुम दोनों के सिवा किसी को भी जीवित नहीं छोडूंगा। क्या मेरे पूर्वकथित संकल्प (प्रण) को तुम भूल गये? माता-पिता के मोह में तुम्हारा यह प्रयत्न व्यर्थ है ।" यह सुनकर अति व्याकुल हुए बलराम और कृष्ण को माता-पिता ने स्नेहपूर्वक कहा - " वत्स ! तुम लोग अब जाओ। तुम्हारा मार्ग कल्याणमय एवं निर्विघ्न हो। तुम लोग जीवित रहोगे तो फिर से यदुकुल का उदय होगा। हमको बचाने में अब तुम लोग सफल नहीं होंगे।" यह कहकर वासुदेव, देवकी और (बलराम की माता) रोहिणी तीनों अनशनपूर्वक नेमि प्रभु की शरण में आये। थोड़ी देर बाद द्वैपायन ने उनके ऊपर अग्नि-वर्षा की। तीनों नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त करके देवलोक में देव हुए। असीमित दुःख से बलराम और कृष्ण विलाप करते हुए नगर के बाहर जाकर किसी जीर्ण उद्यान में चुपचाप बैठकर जलती हुई द्वारका नगरी को देखने लगे। पशुओं और नगरजनों की चींख-पुकारों एवं हड़कम्प से व्याप्त नगर को अग्निज्वाला भस्म सात् कर रही थी । अश्रुपूरित नेत्रों से यह अत्यन्त करण दृश्य देखकर बलराम-कृष्ण सोचने लगे “जल के बुलबुले-सा कैसा क्षणभंगुर ये जीवन ! मेघ-धनुष्य के रंग-सी कैसी अनित्य चंचल लक्ष्मी ! स्वजनों का संगम भी स्वप्न समान क्षणिक !” महलों के सोने के कंगुरे भी कोयले से काले होने लगे। महल भी राख के ढेर में बदलने लगे। कैसी विडम्बना ! तीनों लोकों को जीतने वाले महाशक्तिशाली भी जलती हुई द्वारका को शान्त न कर सके। अपने माता-पिता को भी न बचा सके ! जिनेश्वर भगवंत का वचन वास्तव में अटल, अकाट्य होता है। सत्य है कि पर्वत को भेदने वाले समुद्र के तीव्र प्रवाह को रोका जा सकता है। किन्तु पूर्व में किये गये शुभाशुभ कर्मों परिणाम (फल) को कोई नहीं रोक सकता। इस बात को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए कृष्ण ने बलराम से पूछा"बन्धु ! असहाय होकर अब हम कहाँ जायें? " बलराम ने कहा- "दक्षिण तट स्थित पाण्डवों की नगरी पाण्डु-मथुरा की ओर चलते हैं।” दोनों ने पाण्डु-मथुरा की ओर प्रयाण किया। इधर जलती हुई द्वारका नगरी में बलराम का पुत्र कुब्जवारक अपने महल की छत पर चढ़कर उच्च स्वर में बोलने लगा - " मैं इसी भव में मुक्ति प्राप्त करने वाला हूँ। ऐसा मुझे श्री नेमि प्रभु ने कहा था। यदि यह बात सच है तो मैं अग्नि में क्यों जलूं? ”-कुब्जवारक को इस तरह बोलते हुए देखकर जृभंक देवों ने उसे उठाकर प्रह्लव देश में विचरते श्री नेमिनाथ भगवान के पास छोड़ दिया और उसने वहाँ प्रव्रज्या ग्रहण की। नगर भस्म होने से बलराम-कृष्ण की रानियाँ और यदुओं की स्त्रियों ने अनशनपूर्वक स्वर्ग प्राप्त किया । द्वैपायन देव ने करोड़ों यादवों को भस्म कर दिया। इस भयंकर अग्नि-काण्ड से छः माह में सम्पूर्ण ( पूरा) नगर नष्ट हो गया। तत्पश्चात् दुष्ट द्वैपायन ने समुद्र के जल में द्वारका को डुबा दिया। कितना भयंकर विनाश हुआ ! वसुदेव-देवकी सहित करोड़ों यादव और असंख्य पशु इस अग्नि-काण्ड से अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। यदि द्वारका के विनाश का मुख्य कारण द्वैपायन का क्रोध था, तो उस क्रोध का मुख्य कारण शांब-प्रद्युम्न आदि कुमारों द्वारा (होश खोकर) किया हुआ मदिरा-पान था। अतः दुष्ट कौन हैं? द्वैपायन या मदिरा ? शांब आदि कुमारों से पिटकर द्वैपायन क्रोधित हुए, और पिटाई का मुख्य कारण मदिरा थी। यह सत्य है कि मदिरा-पान से बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं की प्रतिष्ठा फीकी हो गई है' लोग भी अपनी प्रतिष्ठा खो बैठे। स्वस्थ शरीर को अस्वस्थ बनाने वाली भी मदिरा ही है। Jain Education International ★७★ For Private & Personal Use Only समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त ** www.jainelibrary.org

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