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ऐसे क्या पाप किए !
श्रावक के षट्आवश्यक
स्वरूप प्राप्त यह सभी सामग्री आपकी साक्षीपूर्वक समर्पण करके मैं वीतरागता की आराधना कर स्वयं वीतराग बनना चाहता हूँ। __ आज तक मैंने अपनी शक्ति व सामर्थ्य को नहीं पहचाना, मैं तो स्वयं में ही परिपूर्ण हूँ। मुझे सुखी होने के लिए इन बाह्य भोग सामग्री की किंचित् भी आवश्यकता नहीं है। अब यह बात मुझे अच्छी तरह समझ में आ रही है, “अतएव मैं यह समस्त भोग सामग्री आपकी साक्षीपूर्वक त्यागने या समर्पित करने आया हूँ।" ऐसी भावना भाता हुआ ज्ञानी भक्त भगवान के चरणों में अष्टद्रव्य समर्पित करता है।
इस प्रकार पूजन करने के प्रारम्भ में स्वस्ति विधान में जो “समग्र पुण्यं एकमना जुहोमि” वाक्य आया, उसका एवं द्रव्यशुद्धि व भावशुद्धि तथा विविध आलम्बनों का संक्षेप में स्पष्टीकरण किया। पूजा के प्रारम्भ में अर्घ चढ़ाने हेतु हम निम्नांकित छन्द बोलते हैं - उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः ।
धवलमंगलगानरवाकुले-जिनगृहे जिननाथमहं यजे।। इस पद्य में कहा गया है कि - 'जिनगृहे जिननाथमहं यजे' अर्थात् मैं जिनमन्दिर में जिननाथ की पूजा करता हूँ। वीतरागी जिननाथ की पूजा करनेवाला जीव किसी भी प्रकार के रागी देवों को कभी पूज्य नहीं मान सकता । पूजा/भक्ति का भाव भले ही शुभभाव है; परन्तु भक्त तो वीतरागी भगवान के प्रति समर्पित है। शुभराग होता है, पर उसकी दृष्टि शुभराग पर नहीं है, वीतरागी भगवान पर है।
उपर्युक्त पद्य में यह भी कहा है कि जहाँ जिननाथ विराजमान हैं तथा जिसमें हम जिननाथ की पूजा करते हैं, वह जिनमन्दिर “धवलमंगलगानरवाकुले" अर्थात् धवल है, उज्ज्वल है और मंगलकारी गान के नाद से गूंज रहा है। ऐसे जिनमन्दिर में मैं अष्टद्रव्य के द्वारा पूजा करता हूँ वे अष्टद्रव्य इसप्रकार है -
___ 'उदकचंदनतन्दुलपुष्प-कैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः' अर्थात् उदक (निर्मल जल), चन्दन, तंदुल, पुष्प, नैवेद्य, मणिमय दीप, सुगंधित धूप, सरस और फल इन अष्टद्रव्यों से मैं जिननाथ की पूजा करता हूँ।
जल - जल द्वारा पूजा करते हुए भक्त सोचता है - १. जल नम्रता और निर्मलता का प्रतीक है। जल द्वारा पूजा करते समय मन जल जैसा निर्मल तो हो, पर जल जैसा अस्थिर (चंचल) नहीं होना चाहिए, क्योंकि जिस तरह हिलते हुए जल में मुखाकृति नहीं दिखती, उसीप्रकार अस्थिर मन में भगवान के दर्शन नहीं होते।
२. जल जिसतरह मैल धो देता है, उसीप्रकार जल चढ़ाकर राग-द्वेष रूपी मैल धो डालना चाहिए। कहा भी है -
मलिन वस्तु हर लेत सब जल स्वभाव मल छीन ।
जासों पूजों परम पद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ।। ३. यह जल अनादि काल से पिया, परन्तु प्यास नहीं बुझी; विषयों की आशारूपी प्यास बुझाने के लिए भी विषयरूप जल पिया, परन्तु वह आशारूपी प्यास भी इस जल से शान्त नहीं हुई; अत: यह जल आपके चरणों में समर्पण करके समता रूपी जल पीना चाहता हूँ।
४. जैसे जल अपने नम्र स्वभाव से पत्थर जैसी कठोर वस्तु को भी धीरे-धीरे काट देता है, उसीप्रकार आत्मा भी धीरे-धीरे विकार को काट दे-शमन कर दे या पचा दे, तभी जल द्वारा पूजा करना सार्थक है। - चन्दन - १. चन्दन शीतलता, सहनशीलता और सुगन्ध का प्रतीक है। कहा भी है - 'चन्दन शीतलता करे तपतवस्तु परवीन' अर्थात् चन्दन तप्त वस्तु को शीतल बना देता है। चन्दन द्वारा पूजा करते समय भक्त यह भावना भाता है कि “मेरा आत्मा स्वभाव से तो चन्दन से भी अधिक शीतल है। मैं सदा उसी आत्मा का आश्रय करूँ, जिससे आधि-व्याधिउपाधिमय त्रिविध ताप का शमन होकर मुझे समाधि की प्राप्ति हो।"
पाहता हा
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