Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 68
________________ ऐसे क्या पाप किए! नहीं करते, वैश्यावृत्ति वे नहीं करते । जुआ जैसे दुर्व्यसन भी अधिकांश जैनों में नहीं होते। ये ही अवगुण बर्बादी के कारण हैं, जो अधिकांश जैनों में नहीं हैं। जिन जैनों में ये दोष (अवगुण) आ जाते हैं, वे बर्बाद हो जाते हैं। सूखी दाल-रोटी में और छने पानी पीने में कितना खर्च होता है ? अतः थोड़ा-थोड़ा भी बचाया तो बहुत हो जाता। कहा जाता है - "बूंद-बूंद तैं घट भरै और कण-कण जोड़े मन जुड़े।" अतः जैनों के पास पैसा होना स्वाभाविक है। तीसरी बात मैंने यह कही कि जैनों को जन्म से 'सत्वेषुमैत्री' का पाठ पढ़ाया जाता है। प्रेम भाव हो सब जीवों में' का सबक सिखाया जाता है। क्रोधादि कषायें न करने के संस्कार दिए जाते हैं। अत: वे भाई-भाई आपस में लड़ते-झगड़ते नहीं हैं। कभी यदा-कदा लड़ें भी तो हथियार तो उनके पास होते ही नहीं हैं। मैं-मैं तू-तू होकर रह जाते, बहुत हुआ तो हाथापाई, बस... । जबकि दूसरे लोगों के बारे में आये दिन पेपरों में पढ़ने को मिलता है। एक ने बन्दूक से दूसरे की जान ले ली, जान लेनेवाला जेल में गया और दूसरा परलोक में। हो गई मुकदमेंबाजी शुरू, उनका बचा-खुचा सब माल लग गया ठिकाने । यह भी एक बर्बादी का कारण है। जैन लोग समझौता में विश्वास करते हैं, अत: उनके अधिकांश झगड़े कोर्ट तक पहुँचते ही नहीं हैं। वे आपस में बैठकर ही निबटा लेते हैं. अधिक हआ तो पारिवारिक या सामाजिक पंचायत में तो निबट ही जाते हैं। ये कारण तो हुए जैनों के पास पैसा होने के। अब देखना यह है कि जब ये अपरिग्रह की बात करते हैं, परिग्रह को पाप कहते हैं तो परिग्रहरूप पापपुंज रखते क्यों हैं ? कम क्यों नहीं करते? यह प्रश्न विचारणीय है। एतदर्थ हमें परिग्रह का स्वरूप समझना होगा; क्योंकि परिग्रह को परिभाषित किये बिना अपरिग्रह का स्वरूप समझा नहीं जा सकता। अत: पहले परिग्रह की बात करते हैं। अपरिग्रह की बात करनेवालों के पास अधिक परिग्रह क्यों? जिनागम में परिग्रह को सबसे बड़ा पाप और अपरिग्रह को सबसे बड़ा धर्म कहा गया है। दशलक्षण पूजा में परिग्रह के २४ भेद किये जाते हैं, उनमें १४ अन्तरंग परिग्रह हैं और १० बहिरंग परिग्रह हैंमूलपद्य इसप्रकार है परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करे मुनिराजजी। तृष्णा भाव उछेद, घटती जान घटाइए।। उक्त पद्य में चार बातें कहीं हैं - एक - परिग्रह चौबीस प्रकार का है, दूसरी - इनका सम्पूर्ण त्याग साधु करते हैं और तीसरी - बहिरंग परिग्रह में तृष्णाभाव का त्याग (उच्छेद) ही वस्तुतः अपरिग्रह है और चौथी - गृहस्थों को भी यथाशक्ति इन बाह्य परिग्रहों का त्याग करना चाहिए। आजकल जब भी परिग्रह की बात चलती है तो हम मात्र बहिरंग परिग्रह को ही परिग्रह मानते हैं, जो इसप्रकार हैं - (१) क्षेत्र (खेत), (२) वास्तु (मकान), (३) हिरण्य (चांदी), (४) सुवर्ण (सोना), (५) धन (रुपया-पैसा), (६) धान्य (अनाज), (७) दासी-दास, (८) कुप्य (बर्तन) ९. वस्त्र और १०. गाड़ी-घोड़ा आदि । ___जरा सोचिए क्या इसी परिग्रह को सबसे बड़ा पाप कहा होगा ? जबकि ये सब तो पुण्य के फल हैं, बड़े सौभाग्य से प्राप्त होते हैं और जिसके पास यह वैभव होता है, उसकी तो कवि ने यहाँ तक प्रशंसा की है - यस्यास्ति वित्तं, स नर: कुलीन, सपण्डितः श्रुतवान गुणज्ञः। स एव वक्ता स च दर्शनीय, सर्वे गुण: कांचनमाश्रयन्ति ।। यद्यपि कवि का यह कथन एक व्यंग्य है; पर सच भी यही है, क्योंकि यह सब वैभव पुण्य से प्राप्त हुआ है; मुफ्त में नहीं मिला है। जगत में ऐसा कौन है जो करोड़पति नहीं बनना चाहता; और प्रयत्न (68)

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