Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ १३० ऐसे क्या पाप किए! १३१ यद्यपि नीलांजना की मौत और जनता का स्वार्थीपना तो उनके वैराग्य का मात्र बाह्य-निमित्तकारण था, जो वस्तुतः अकिंचित्किर होता है। जबतक उपादान कारण में दीक्षा लेने की तत्समय की योग्यता न आई हो तब तक दीक्षा नहीं हो सकती थी। प्रत्येक कार्य अपने पाँच समवाय पूर्वक ही तो होता है, जिसमें पुरुषार्थ, होनहार एवं काललब्धि प्रमुख हैं। इनके सुमेल के बिना भी कोई कार्य निष्पन्न नहीं होता। तीर्थंकर जब भी दीक्षा लेते हैं, स्वयं ही दीक्षित होते हैं। वे किसी से दीक्षा लेते भी नहीं है और किसी को दीक्षा देते भी नहीं हैं। वे दीक्षा लेते ही मुनि अवस्था में मौन से ही रहते हैं। उनका अधिकांश समय आत्मा में स्थिर होने हेतु अन्तर्मुखी पुरुषार्थ में ही व्यतीत होता है। केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् ॐ के रूप में उनकी निरक्षरी या एकाक्षरी दिव्यध्वनि सर्वांग से खिरती है। वे किसी एक व्यक्ति के लक्ष से एक भाषा विशेष में उपदेश नहीं देते। किसी के प्रश्नों का उत्तर नहीं देते। उनकी इस दिव्यध्वनि का ऐसा अतिशय होता है कि श्रोताओं के मन में जो भी प्रश्न उठते हैं, जो भी जिज्ञासा होती है, उसका सहज समाधान स्वतः ही हो जाता है। उनकी दिव्यध्वनि में तो द्वादशांग के रूप वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन ही होता है। चार अनुयोगों की शैली में जो जिनवाणी आचार्यों द्वारा करुणाबुद्धि से सरल प्रश्नोत्तरी की शैली में लिपिबद्ध हुई, उसी दिव्यध्वनि का सार शास्त्र के रूप में हमें उपलब्ध हैं। तीर्थंकर भगवान की इस धर्मसभा को ही समोशरण कहते हैं। इस धर्मसभा की रचना इन्द्र द्वारा की जाती है। धर्मसभा में श्रोता मनुष्य, देव तो होते ही हैं, पंचेन्द्रिय संज्ञी पशु भी होते हैं, सभी वैर-विरोध भूलकर धर्मामृत का पान करते हैं। यह चल धर्मसभा तीर्थंकर अरहंत की आयु पर्यंन्त चलती रहती है। अन्त में जब तीर्थंकरों का निर्वाण होता है, तब उनका निर्वाण कल्याण महोत्सव मनाया जाता है, और वे सिद्ध पद प्राप्त कर अनन्तकाल तक अनन्त सुख में मग्न रहते हैं। पंचकल्याणक : पाषाण से परमात्मा बनने की प्रक्रिया साक्षात् तीर्थंकर भगवान के अभाव में उनके पावन उपदेशों एवं आदर्शों का अनुकरण करने हेतु एवं उनकी मंगलमय उक्त घटनाओं के निमित्त से अपने जीवन को मंगलमय बनाने हेतु जो नवनिर्मित तदाकार जिनबिम्बों की विधि-विधानपूर्वक प्रतिष्ठा होती है उनमें पूज्यता स्थापित करने के लिए ये पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव किए जाते हैं, ये उन्हीं असली पंच-कल्याणकों की सत्यापित, प्रमाणित आदर्श प्रस्तुति है। मंच पर जो पाँचों कल्याणकों का आगम के अनुरूप आकर्षक, शिक्षाप्रद एवं प्रेरणाप्रद प्रदर्शन होता है, वह तो मात्र उपस्थित जनता की सामान्य जानकारी हेतु ही होता है, साथ ही प्रतिष्ठाचार्यों द्वारा मंच के पीछे वेदी में विराजमान जिनबिम्बों की विधि-विधानपूर्वक मंत्रों द्वारा स्थापना निक्षेप से प्रतिष्ठा विधि सम्पन्न होती है, जिससे उनमें पूज्यता आती है। आगम में इसका स्पष्ट उल्लेख है - ___"जिनप्रतिमा जिन सारखी, कही जिनागम माँहि।" इसप्रकार पंचकल्याणक महोत्सवों के माध्यम से प्रतिष्ठित प्रतिमायें साक्षात् समवसरण में विराजमान जिनेन्द्र के समान ही भव्यजीवों को सम्यग्दर्शन में निमित्त होती हैं। __ यहाँ ज्ञातव्य यह है कि साक्षात् समोशरण में भी तो हमें इन चर्मचक्षुओं से तीर्थंकर भगवान का परम औदारिक शरीर ही दिखाई देता है। उनके आत्मा के दर्शन तो हमें वहाँ भी नहीं होते। अतः हमारे लिए तो हमारा जिन मन्दिर ही तीर्थंकर भगवान का समवसरण है जिनप्रतिमा ही जिनेन्द्र हैं और शास्त्र ही उनकी साक्षात् दिव्यध्वनि का सार है। जब तीर्थंकर भगवान का केवलज्ञान कल्याणक के पूर्व तपकल्याणक होता है, तब उनके वैराग्य के प्रसंगों का जो सशक्त प्रदर्शन होता है, वह हजारों भव्य जीवों को वैराग्य में प्रेरक बनता है, अनेक व्यक्ति ब्रह्मचर्यव्रत धारण करते हैं, अनेक मन ही मन विषय-कषायों से विरक्त होते हैं। पाप (66)

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142