Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ १५२ तब उत्तर में भगवान महावीर यह कहते - " ऐसे क्या पाप किए ! 'अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है और आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है - यही जिनागम का सार है।" इस अहिंसा के दो रूप हैं - द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति भावहिंसा है और प्रमाद के योग से दूसरों के प्राणों का घात करना, उन्हें नानाप्रकार से सताना, दुःख देना द्रव्यहिंसा है। यह द्रव्यहिंसा तीनप्रकार से होती है- काया से, वचन से, मन से । काया से की गई हिंसा को तो सरकार रोकती है। यदि कोई किसी को जान से मार दे, तो उसे पुलिस पकड़ लेगी, उस पर मुकदमा चलेगा और फाँसी की सजा हो जायेगी । इस भय से भयभीत होकर सभी द्रव्यहिंसा करने से डरते हैं। यदि कोई किसी को वाणी (वचन) से मारे अर्थात् जान से मारने की धमकी दे, गालियाँ दे, भला-बुरा कहे तो सरकार तो कुछ नहीं कर सकती, पर समाज उस पर प्रतिबन्ध अवश्य लगाती है। जो व्यक्ति अपनी वाणी का सदुपयोग करता है, समाज उसका सम्मान करता है और जो दुरुपयोग करता है, समाज उसकी उपेक्षा या अपमान करता है, इसप्रकार सम्मान के लोभ से एवं उपेक्षा या अपमान के भय से हम बहुत-कुछ अपनी वाणी पर संयम रखते हैं। पर यदि कोई किसी को मन में गालियाँ दे, जान से मारने का भाव करे तो उसका क्या बिगाड़ लेगी समाज और क्या कर लेगी सरकार? अतः न जहाँ सरकार की चलती है और न जहाँ समाज की चलती है, धर्म का काम वहाँ से आरम्भ होता है; अतः भगवान महावीर ने ठीक ही कहा है- आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है और आत्मा (77) भगवान महावीर के विश्वव्यापी संदेश १५३ में रागादि की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है - यही जिनागम का सार है । यदि मन में क्रोधादि विकार रूप हिंसा का भाव पैदा हो जायेगा तो वाणी में आयेगा ही और वाणी में आयेगा तो काया के द्वारा प्रवृत्ति होगी ही । अतः भगवान महावीर ने मात्र द्रव्यहिंसा से बचने की ही बात नहीं कही; बल्कि भावहिंसा पर ही रोक लगाना आवश्यक माना है। हिंसा का भाव मन में (आत्मा में) उत्पन्न ही न हो, तभी हम द्रव्य हिंसा से बच सकते हैं। उदाहरणार्थ - यदि हमें शराबबन्दी करना हो तो 'लोग शराब न पियें' - क्या ऐसा कठोर कानून बनाने से शराबबन्दी सफल हो जायेगी ? नहीं होगी; क्योंकि जबतक कहीं न कहीं चोरी-चोरी शराब का उत्पादन होता रहेगा, तो वह मार्केट में आयेगी ही और मार्केट में भी आयेगी तो लोगों के पेट में जायेगी ही और लोगों के पेट में जायेगी तो माथे में भन्नायेगी ही, अतः यदि हम चाहते हैं कि शराब माथे में न भन्नाये, लोग शराब न पिये तो हमें उन अड्डों को बन्द करना होगा जहाँ शराब बनती है। इसीप्रकार यदि हम चाहते हैं कि जीवन में हिंसा प्रस्फुटित ही न हो तो हमें उसे आत्मा के स्तर पर, मन के स्तर पर ही रोकना होगा; क्योंकि यदि आत्मा या मन के स्तर पर हिंसा उत्पन्न हो गयी तो वह वाणी और काया के स्तर पर भी प्रस्फुटित होगी ही। जब तक लोगों की आत्मा में निर्मलता नहीं होगी, तबतक हिंसा को रोकना संभव नहीं होगा। अतः हमें वस्तुस्वरूप समझकर पर पदार्थों में हो रही इष्टानिष्ट की मिथ्या कल्पना को मेटना होगा, तभी हमारे राग-द्वेष के भाव कम होंगे और वीतराग धर्म की ओर अग्रसर हो सकेंगे हिंसा आदि मनोविकारों से बचने का अन्य कोई उपाय नहीं है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142