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ऐसे क्या पाप किए ! प्रश्न :- वह आत्मा कौन जो राग-द्वेषादि से भिन्न है?
समाधान :- वह जीव चेतनागुण स्वभाववाला है। रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है। शरीर का आकार आत्मा का स्वरूप नहीं है। काला, पीला, मोटा, दुबला दिखनेवाला भी आत्मा का स्वरूप नहीं है। आत्मा तो एक अखण्ड, नियत वस्तु है।
आत्मा में नियतपने का, एकरूप रहने का गुण है। कितनी ही पर्यायों में गया, एकेन्द्रिय हुआ, सैनी हुआ, बड़ा लम्बा मगरमच्छ हुआ, अत्यन्त छोटे-बड़े शरीरों में गया, फिर भी यह जीव ज्यों का त्यों रहा, कहीं छोटा-बड़ा नहीं हुआ। ऐसा नियत स्वभाववाला मैं स्वयं आत्मा हूँ। ___ अज्ञानवश यह जीव इन परपदार्थों में अहंबुद्धि करके इन रूप अपने को मानता है। इस शरीर में भी आत्मीयता करके 'यही मैं हूँ - ऐसा अनुभव करता है। जिसप्रकार कोई कुत्ता सूखी हड्डी को चबाता है तो उसमें खून तो नहीं होता, उसके चबाने से खुद के ही मसूढ़ों से निकले खून का स्वाद लेता है और भ्रम से मानता है कि मुझे हड्डी से स्वाद आया; ठीक इसीप्रकार अपने सुखस्वभावी आत्मा को भूलकर अज्ञानतावश देहादिक परपदार्थों में आत्मीयता की बुद्धि करके यह अज्ञानी जीव मानता है कि मुझे अमुक पदार्थ से सुख आया।
यह जीव इन बाहरी दिखनेवाली इन्द्रियों के माध्यम से जो ज्ञान करता है, बाहर में जानता है, देखता है, सुनता है, स्वादता है, मौज मानता है, इन्हें देखकर यह मानता है कि यह इन्द्रियवाला देह ही मैं जीव हँ; पर आचार्यदेव यहाँ कहते हैं कि बाहर में दिखनेवाला यह देह आत्मा नहीं है, आत्मा की सत्ता तो इस देह से अत्यन्त भिन्न है।
जिसने उस आत्मतत्त्व को भलीभाँति जाना नहीं, समझा नहीं; वह बाहरी कितनी ही धार्मिक चेष्टाएँ करे, भले ही भ्रम से अपने को ज्ञानी - सम्यग्दृष्टि अनुभव करे अपने पर आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा जीव तो अभी धर्म के मार्ग से अत्यन्त दूर है।
देखो! यह मनुष्यभव भव का अभाव करने के लिए मिला है, भव बढ़ाने के लिए नहीं। राग-द्वेष-मोहादि विकारीभाव करके तो यह जीव अपने भव बढ़ाने का ही उद्यम कर रहा है। राग-द्वेष-मोहादि करना इस आत्मा का स्वाभाविक कार्य नहीं है। ये तो इस आत्मा के विकार हैं, इन विकारी भावों से तो इस जीव का संसार ही बढ़ता है। ___ अरे भाई! आत्मा का श्रद्धान-ज्ञान और चारित्ररूप परिणमन होना स्वाभाविक गुण है। यह आत्मा शान्तरस से परिपूर्ण है, आनन्द से भरपूर है, इस आत्मा में आनन्द नाम की शक्ति है, आनन्दमय रहना इस आत्मा का स्वाभाविक गुण है; फिर भी यह आत्मा दुःखी क्यों है? दर-दर का भिखारी क्यों बना फिर रहा है?
यह आत्मा अनन्तज्ञान वाला है, इसमें स्वभावतः आनन्द ही आनन्द भरा हुआ है, इसमें जानने-देखने की अचिन्त्य शक्ति है। फिर भी उसका पता न होने से यह अज्ञानी जीव अपने को दीन-दुःखी अनुभव करता है।
अरे! इसके पास तो वह ज्ञानरूपी धन है कि यदि चाहे तो अनन्तकाल के लिए यह अपना दुःख मेट सकता है, अपने अनन्त आनन्दधाम भगवान आत्मा से मिल सकता है।
हे आत्मन! तू बाहरी पदार्थों से अपनी दृष्टि हटा, अपने अनन्त ज्ञानानंदघन के धनिक भगवान आत्मा की ओर अपनी दृष्टि लगा, उसी का चिन्तन कर, मनन कर, उसी में अपने उपयोग को लगा दे, जमा दे, और उसी में लीनता को प्राप्त होकर अनन्त काल के लिए सुखी हो जा, अनन्त संसार की असीम वेदनाओं से सदा के लिए मुक्त हो जा।
सभी जीव इस दुर्लभ मानवजीवन को पाकर अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझे, उसी में लीनता को प्राप्त होकर भव-भव के जन्म-मरण के दुःख से छुटकारा प्राप्त करें - यही मंगल भावना है।
- (स्व. बाबूभाई मेहता विशेषांक से)
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