Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 130
________________ ऐसे क्या पाप किए ! श्री सिद्धचक्र माहात्म्य श्री सिद्धचक्र गुणगान करो मन आन भाव से प्राणी; कर सिद्धों की अगवानी ।।टेक ।। सिद्धों का सुमरन करने से, उनके अनुशीलन चिन्तन से; प्रगटैं शुद्धात्म प्रकाश, महा सुखदानी 5 5 5। पाओगे शिव रजधानी ।।श्री सिद्धचक्र. ....... ।।१।। श्रीपाल तत्त्वश्रद्धानी थे, वे स्व-पर भेद विज्ञानी थे; निज देह-नेह को त्याग, भक्ति उर आनी 555। हो गई पाप की हानी।।श्री सिद्धचक्र. ....... ||२|| मैना भी आतम ज्ञानी थी, जिन शासन की श्रद्धानी थी; अशुभभाव से बचने को, जिनवर की पूजन ठानी 555। कर जिनवर की अगवानी ।।श्री सिद्धचक्र. ....... ।।३।। भव-भोग छोड़ योगीश भये, श्रीपाल ध्यान धरि मोक्ष गये; दूजे भव मैना पावे शिव रजधानी 5 5 5। केवल रह गई कहानी ।।श्री सिद्धचक्र. ....... ।।४ ।। प्रभु दर्शन-अर्चन-वन्दन से, मिटता है मोह-तिमिर मन का; निज शुद्ध-स्वरूप समझ का, अवसर मिलता भवि प्राणी ऽऽऽ । पाते निज निधि विसरानी ।।श्री सिद्धचक्र. ....... ।।५।। भक्ति से उर हर्षाया है, उत्सव युत पाठ रचाया है; जब हरष हिये न समाया, तो फिर नृत्य रकण की ठानीऽऽऽ । जिनवर भक्ति सुखदानी ।।श्री सिद्धचक्र. ....... ।।६।। सब सिद्धचक्र का जाप जपो, उनही का मन में ध्यान धरो; नहिं रहे पाप की मन में नाम निशानीऽऽऽ । बन जाओ शिवपथ गामी ।।श्री सिद्धचक्र. ....... ।।७।। जो भक्ति करे मन-वच-तन से, वह छूट जाय भव बंधन से; भविजन! भज लो भगवान, भगति उर आनीऽऽऽ । मिट जै है दुःखद कहानी ।।श्री सिद्धचक्र. ....... ।।८।। शुद्धात्मा का स्वरूप समयसार गाथा ४९ में कहा है - “आत्मा रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, अव्यक्त तथा चेतनागुण से युक्त एवं किसी चिह्न से ग्रहण न होनेवाला और जिसका कोई आकार नहीं है - ऐसा जान ।" (समयसार गाथा ४९)। यह आत्मा गुणों का पिण्ड है, रूप-रस-गंध-स्पर्श-वर्ण आदि से रहित है, इसमें कोई आकार नहीं होता, इसमें पुद्गल द्रव्य का स्वामित्व नहीं होता, इसमें काला-गोरा आदि कोई रूप नहीं होते। जिन्हें यह भी ज्ञान नहीं कि “मैं आत्मा तो एक अमूर्तिक पदार्थ हूँ" जो इन पौद्गलिक पदार्थों को अपना मानते हैं, वे अज्ञजन इन द्रव्येन्द्रियों के माध्यम से ही आत्मा का ज्ञान करते हैं जबकि आत्मा तो इन द्रव्येन्द्रियों के माध्यम से देखने में आता नहीं, वह तो अनुभवगम्य है। मोक्षमार्गप्रकाशक में एक जगह पंडित टोडरमलजी ने लिखा है कि - ___ "शरीर के अंगरूप स्पर्शनादि जो द्रव्येन्द्रियाँ हैं, उन्हें यह अज्ञानी जीव एक मानकर ऐसा मानता है कि मैंने स्पर्श किया, जीभ से स्वाद लिया, नासिका से सूंघा, नेत्रों से देखा, कानों से सुना और मन से मैंने जाना - यों अपने को ये अज्ञानी जीव द्रव्येन्द्रिय रूप ही मानते हैं, उनको इस बात का ज्ञान ही नहीं होता कि “इस दृश्यमान पौद्गलिक देह से भिन्न मैं अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मा हूँ।" ___ इस जीव को परिचय करने लायक - अनुभव करने लायक एक मात्र जीवतत्त्व है, आत्मतत्त्व है; क्योंकि इसी के अनुभव करने से सच्ची शान्ति मिलती है। राग-द्वेष-मोहादि विकारी भावों का परिचय तो इस जीव ने अनादि काल से अब तक अनंत बार किया है, परन्तु इसे शान्ति नहीं मिली; (150)

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