Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 131
________________ ऐसे क्या पाप किए ! बल्कि उस विकाररूप अनुभव के फलस्वरूप इसे अशान्ति ही मिली, यह दुःखी ही हुआ। इसमें निरन्तर आकुलता का ही उत्पाद हुआ, कषाय का ही वेदन हुआ, कषाय की ही आग में जला है। इस जीव ने अब तक अपने अविकारी आत्मतत्त्व का परिचय नहीं किया, अनुभव नहीं किया। रे जीव! तू अपने इस आत्मतत्त्व को - चैतन्यतत्त्व को एक बार जान तो सही, पहिचान तो सही, अनुभव तो सही, निहाल हो जायेगा। यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि बाह्य पदार्थ तो आत्मा है नहीं, देह व देह की क्रिया भी आत्मा व आत्मा की क्रिया नहीं है और आप कहते हो कि अध्यवसानादि भाव भी जीव नहीं हैतो फिर जीव कैसा है? समाधान यह जीव अरस है; इसमें खट्टा, मीठा, कड़वा आदि कोई रस नहीं है, जो जिह्वा से रसरूप में चखकर जाना जा सके, इसका अनुभव किया जा सके। दूसरे - यह जीव अरूपी है अर्थात् काला, पीला आदि इसमें कोई रूप नहीं है, जो कि नेत्रों के द्वारा देखकर जाना जा सके। तीसरे - इसमें कोई स्पर्शन (व्यक्तपना) जैसा गुण भी नहीं है, जो कि इन्द्रियों के द्वारा स्पर्श करके जाना जा सके। छठे - इसमें कोई पौद्गलिक पदार्थों अरे भाई! आत्मा का ऐसा आकार भी नहीं है, जो कि इन्द्रियों के द्वारा जाना जा सके। प्रश्न :- आत्मा पर में क्या करता है? समाधान :- आत्मा अपने से बाहर अन्य में कछ कर ही नहीं सकता, आत्मा तो सिर्फ अपने भावों का ही कर्ता है। बाहर में दिखनेवाला यह कार्य इस आत्मा का कार्य नहीं है। जैसे कोई नाटक खेलनेवाला व्यक्ति राजा हरिश्चंद्र का पार्ट अदा करता है तो वह उस पार्ट के अदा करने मात्र से कहीं राजा हरिश्चंद्र नहीं हो गया, वह तो पार्ट अदा करने के बाद जो वास्तव में था वो ही है; इसीप्रकार यह आत्मा नाना प्रकार के देह धारणकर (भेष धारण कर) कहीं उन नानारूप नहीं हो जाता, देह से छुटकारा प्राप्त करने पर वह तो जो था वही रह जाता है। प्रश्न :- यह जीव यदि पर में कुछ नहीं करता तो इसके अन्दर में जो शुभ-अशुभ भाव होते हैं उनको तो यह जीव ही करता होगा? समाधान :- आचार्यदेव समाधान देते हैं कि यह जीव इन शुभअशुभ भावों का भी कर्ता नहीं है। ये शुभ-अशुभ भाव तो आत्मा के विकारी भाव हैं, विभावभाव हैं, आत्मा के स्वभावभाव नहीं हैं; अतः ये भी इस आत्मा के नहीं है। प्रश्न :- तो फिर वह आत्मा कैसा है? समाधान :- “देखो! इस मनुष्यपर्याय से भिन्न तथा संपूर्ण शुद्धाशुद्ध पर्यायों से प्रथक जीवतत्त्व ही आत्मा है। प्रश्न :- तो क्या यह आत्मा सिद्धगतिवाला है? समाधान :- अरे! सिद्धगतिवाला भी आत्मा नहीं है। सिद्धगति भी एक पर्याय है, उसका भी लक्ष्य छोड़कर जो एक स्वयंसिद्ध है, जिसका बनाने-बिगाड़ने वाला कोई अन्य नहीं; वह आत्मा है। प्रश्न :- आत्मा की वह स्वयंसिद्ध पर्याय क्या है? समाधान :- यह भगवान आत्मा केवल निरावरण प्रत्यक्ष प्रगट प्रतिभासमय परमात्मद्रव्य है, ज्ञायक तत्त्व है वही आत्मतत्त्व है। प्रश्न :- देह का संयोग होने पर भी जो देह से भिन्न है - ऐसा ज्ञानस्वभावी, ज्ञायकस्वभावी, आत्मतत्त्व कैसा है? समाधान :- वह जीव एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय आदि इन्द्रियरूप नहीं; बहिरात्मा, अन्तरात्मारूप भी नहीं; अतः वह एक अलौकिक तत्त्व है। प्रश्न :- अरे! क्या जीव बहिरात्मा-अन्तरात्मारूप भी नहीं है? समाधान :- हाँ, यह जीव बहिरात्मा-अन्तरात्मा आदि भेदों से रहित है, श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र आदि भेदों से भी रहित है, पूर्ण श्रद्धानज्ञान-चारित्रमय है। भेद करके देखने पर आत्मा के दर्शन नहीं होंगे। वह एक अभेद-अखण्ड ज्ञायकस्वभावी तत्त्व है। यह आत्मा इन देहादिक समस्त परपदार्थों से अत्यन्त भिन्न है - ऐसा जानने में आए, “तब आत्मा जाना' - ऐसा कहते हैं। (131)

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