Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 134
________________ ऐसे क्या पाप किए ! प्रभावना है तथा दान, तप, जिनपूजा और विशेष विद्या द्वारा जिनधर्म की प्रभावना का कार्य करना व्यवहार प्रभावना है। एक प्रकार से यह पूरा ग्रन्थ ही निश्चय - व्यवहार के समन्वय की सुगन्ध से महक उठा है। नयविभाग के सम्यग्ज्ञान बिना आज निश्चय-व्यवहार के नाम पर समाज में जो विग्रह चल रहा है, उसके शमन का एकमात्र उपाय इस ग्रन्थ का अधिक से अधिक पठन-पाठन ही है। जिनागम के अध्ययन के लिए वे निश्चय-व्यवहार का ज्ञान आवश्यक मानते हैं। उनका कहना है कि निश्चय-व्यवहार के ज्ञान बिना शिष्य जिनागम का रहस्य नहीं समझ सकता, अतः जिनागम के अभ्यास का अविकल फल भी प्राप्त नहीं कर सकेगा। वे कहते हैं - "व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ।। जो जीव व्यवहारनय और निश्चयनय को वस्तु स्वरूप से यथार्थ जानकर मध्यस्थ होता है, वह शिष्य ही उपदेश का अविकल फल प्राप्त करता है। मोक्षमार्ग में निश्चय - व्यवहार का स्थान निर्धारित करने वाली गाथा प्रस्तुत करके टीकाकार पण्डित टोडरमल कहते हैं कि हमें पहले दोनों नयों को भले प्रकार जानना चाहिए, पश्चात् उन्हें यथायोग्य अंगीकार करना चाहिये। किसी एक नय को पक्षपाती होकर हठाग्रही नहीं होना चाहिए । गाथा इस प्रकार है - "जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा व्यवहार णिच्छएमुअह । एकेण विणा छिज्जड़ तित्थं अण्णेणपुण तच्चं ।। " यदि तू जिनमत में प्रवर्तन करना चाहता है तो व्यवहार और निश्चय को मत छोड़ । यदि निश्चय का पक्षपाती होकर व्यवहार को छोड़ेगा तो रत्नत्रय स्वरूप धर्मतीर्थ का अभाव होगा। और यदि व्यवहार का पक्षपाती (134) होकर निश्चय को छोड़ेगा तो शुद्धतत्त्व का अनुभव नहीं होगा।" यह गाथा आचार्य अमृतचन्द्र को भी अत्यन्त प्रिय थी । उन्होंने आत्मख्याति में भी इसे उद्धृत किया है। वे अपनी टीकाओं में सहजरूप से कोई उद्धरण देते ही नहीं हैं, तथापि इस गाथा को उन्होंने उद्धृत किया है । सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रात्मक मोक्षमार्ग का आरम्भ करते हुए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं : तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रणीयखिलम यत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ॥ इन तीनों में सर्वप्रथम सम्पूर्ण प्रयत्नों से सम्यग्दर्शन की उपासना करना चाहिये, क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं । " उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की परिभाषायें निश्चय - व्यवहार की संधिपूर्वक दी हैं, जो इसप्रकार हैं " जीवा जीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनवेश विविक्तमात्म रूपं तत् ।। कर्तव्योऽध्यवसायः सदनेकांतात्मकेषु तत्त्वेषु । संशय विपर्य्ययानध्यवसायविविक्तमात्मरूपं तत् ।। चारित्रं भवति यतः समस्त सावद्य योग परिहरणात् । सकल कषाय विमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् । । जीवादि पदार्थों का विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है और वह निश्चय से आत्मरूप ही है। जीवादि पदार्थों का संशय विपर्यय-अनध्यवसाय रहित यथार्थ निर्णय व्यवहार सम्यग्ज्ञान है और वह सम्यग्ज्ञान निश्चय से आत्मरूप ही है। समस्त सावद्ययोग और सम्पूर्ण कषायों से रहित, पर पदार्थों से विरक्तरूप आत्मा की निर्मलता व्यवहार सम्यक्चारित्र है और वह

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