Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 140
________________ ऐसे क्या पाप किए! विनय, उदारता धैर्य, ईमानदारी, सच्चाई, सन्तोष, दृढ़ता, स्वाभिमान, स्वावलम्बन आदि सभी सद्वृत्तियाँ आ जाती हैं। ऐसा कोई काम न करना जो स्वयं को अच्छा नहीं लगता। यह विचार चरित्र निर्माण का मूल मन्त्र है। कहा भी है “आत्मनःप्रतिकूलानिं परेसां न समाचरेत्" हम नहीं चाहते हैं कि कोई हमें सताये, धोखादे और हमारी वस्तुएँ चुराये; यदि कोई ऐसा करता है तो कल्पना कीजिए हम कितने दुखी होते हैं। हम नहीं चाहते हैं कि कोई हमारी माँ बहिन को कुदृष्टि से देखे । काश! यदि कोई ऐसी भूलकर बैठता है तो हम को कैसा लगता है? क्या हम उसे प्राणदण्ड तक सजा देने को तत्पर नहीं हो उठते? फिर सोचिए यदि हम दूसरों के साथ ऐसा ही व्यवहार करें तो? यही तो वे पाप हैं जिन्हें आचार्य हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील कहते हैं। इसी प्रकार जुआ खेलना, शराब पीना आदि भी कुछ ऐसे दुर्व्यसन हैं जो हमें अशांत और अज्ञानी बनाते हैं, हमारे चरित्र का हनन करते हैं यश का नाश करते हैं, सुख को समाप्त कर देते हैं। इनके रहते हमारे श्रद्धा, ज्ञान व आचरण सम्यक् नहीं हो सकते । अतः पापों की तरह ये व्यसन भी सर्वथा त्याज्य हैं। सम्यक् श्रद्धा का अर्थ है आत्मा के अस्तित्व का विश्वास जो अपनी आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं और जैनदर्शन में दर्शाये छह द्रव्य व सात तत्वों में श्रद्धा रखते हैं। कर्म सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। ऐसे जीवों का आचरण भी फिर पापरूप नहीं होता, यही सम्यक् आचरण है। अपनी आत्मा के अस्तित्व की एवं जगत में अन्य आत्माओं के अस्तित्व की यथार्थ जानकारी का नाम ही सम्यक्ज्ञान है, सम्यक् श्रद्धा, सम्यक्ज्ञानपूर्वक जो पवित्र आचरण है वही सम्यक् आचरण है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में धैर्य, उदारता, सच्चाई, सन्तोष, स्वाभिमान स्वावलंबन जैसी सद्वृत्तियाँ सहज ही आ जाती हैं। धैर्यधारी व्यक्ति आपत्ति आने पर विचलित नहीं होते, प्रलोभनों के जाल में नहीं फँसते और अपने ध्येय की पूर्ति के लिए सदा तत्पर रहते हैं। ___ “विकार - हे तौ सति विक्रियन्ते एसां न चेतांसि त एव धीराः" अर्थात् विकार के कारण उत्पन्न होने पर जिनका चित्त विचलित नहीं होता वे ही धीर हैं।" उदारता के अन्दर वे भाव आते हैं जिनमें अपने छुद्र स्वार्थ का परित्याग करना पड़ता है। दूसरों के प्रति समता-भाव रखना, उनके विचारों का आदर करना, स्वयं श्रेय न लेकर दूसरों को देना आदि बातें उदारता की सीमा में आती हैं, दूसरों की छोटी-छोटी बातों का महत्व देना, उपयुक्त स्थान पर दिल खोलकर निर्लोभ वृत्ति से दान देना यह सब उदारता ही है। सत्य ही चरित्र की सच्ची कसौटी है। जब किसी की आत्मा को आघात पहँचाना हिंसा है तो अपनी आत्मा का गला घोंटना भी तो हिंसा ही है और लोग झूठ बोलकर ऐसा करते रहते हैं, जिसके कारण अनेकानेक दुर्गुणों के लिए मन का द्वार खुल जाता है। इसलिए कहा गया “साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप जाके हृदय साँच है, ताकै हृदय आप सत्य बोलने वाला ही संसार में आदर पाता है। लोभ - लालच में पड़कर मानव अपना सर्वस्व नष्ट कर डालते हैं, लालची मनुष्य के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं, उनकी बातों का किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह एक ही अवगुण उसके समस्त गुणों पर पर्दा डाल देता है, अतः चरित्र निर्माण में इसका भी ध्यान रखना अति आवश्यक है। सच्चे आत्मज्ञानी मानव में ये दोष नहीं होता; क्योंकि उन्हें अपने धर्म, कर्म और पुरुषार्थ पर पूरा पूरा भरोसा रहता है - यदि कोई हिन्दू कर्म में श्रद्धावाले भी यही कहते हैं कि - (140)

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