Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ १९ सोलहवीं सदी में एक क्रान्तिकारी संत का उदय भारतीय इतिहास में धार्मिक और सांस्कृतिक उतार-चढ़ाव की दृष्टि से १६वीं सदी सबसे अधिक उथल-पुथल की सदी रही है। उसी समय शासकों के धार्मिक उन्माद भरे अत्याचारों से समस्त हिन्दू एवं जैन समाज अत्यधिक आक्रान्त और आतंकित हो रहा था। उसके साधना और आराधना के केन्द्र निर्दयतापूर्वक नष्ट-भ्रष्ट किये जा रहे थे। धर्मायतनों की सुरक्षा चिन्तनीय हो गयी थी। जहाँ जैनों का प्रचुर पुरातत्त्व यत्र-तत्र बिखरा हुआ था, उस मध्य प्रान्त और बुन्देलखण्ड के सुरम्य क्षेत्रों में यवन शासकों का विशेष आतंक था। वहाँ की जैन समाज अपने धर्मायतनों की सुरक्षा के लिए विशेष चिन्तित थी। यह आवश्यकता अनुभव की जा रही थी कि क्यों न कुछ काल के लिए अपने आराध्य अवशेषों को सुरक्षित गुप्त गर्भ-गृहों में छुपा दिया जाये और उसके स्थानापन्न जिनवाणी का आलम्बन लेकर अध्ययनमनन-चिन्तन द्वारा आत्मा-परमात्मा की आराधना-उपासना की जावे और अपने धर्म का पालन किया जावे। विचार तो उत्तम थे; परन्तु इनका क्रियान्वयन किसी प्रतिभावान, प्रभावशाली व्यक्तित्व के बिना संभव नहीं था; क्योंकि अधिकांश जनता आत्मज्ञानशून्य केवल पूजा-पाठ, तीर्थयात्रा, दान-पुण्य आदि बाह्य क्रियाओं को ही धर्म माने बैठी थी। उसमें ही धर्म का स्वरूप देखनेसमझनेवाले को यह बात समझाना आसान नहीं था कि ये धर्मायतन तो धर्मप्राप्ति के बाह्य साधन मात्र हैं, सच्चा धर्मायतन तो अपना आत्मा ही है और वह आत्मा अविनाशी तत्त्व है, उसे कोई ध्वस्त नष्ट-भ्रष्ट नहीं कर सकता। सोलहवीं सदी में एक क्रान्तिकारी संत का उदय २०७ ___ एक ओर बाहरी उपद्रवों का संकट था और दूसरी ओर आन्तरिक अज्ञानता का हठ था। स्थिति तो विकट थी; परन्तु आवश्यकता को आविष्कार की जननी कहा जाता है-मानो इस उक्ति को सार्थक करते हुए ही तत्कालीन आवश्यकता की पूर्ति हेतु एक ऐसी प्रतिभा का उदय हुआ, जिसमें पुण्य और पवित्रता का मणि-कंचन योग तो था ही, साथ ही उसमें उद्दाम काम और क्रोधादि कषायों को जीतने की भी अद्भुत क्षमता थी तथा वाणी में भी ऐसा जादू था कि आन्तरिक अज्ञान और बाहरी उपद्रवों की दुहरी समस्या को सुलझाने में भी वह सफल रही। उस प्रतिभा का नाम था - "श्री जिन तारणतरणस्वामी।" जिन्हें संक्षेप में 'तारणस्वामी' भी कहा जाता है। श्री तारण स्वामी ने तत्कालीन परिस्थितियों में आत्मोन्नति और धर्म के उत्थान के लिए जिनवाणी की आराधना के द्वारा तत्त्वज्ञान के अभ्यास पर विशेष बल दिया तथा जिनवाणी की उपासना को ही मुख्य रखकर शेष क्रिया-काण्ड को गौण किया। यह एक बहुत बड़ा क्रान्तिकारी कदम था। इससे जहाँ एक ओर आन्तरिक अज्ञान हटा, वहीं दूसरी ओर क्रियाकाण्ड का आडम्बर भी कम हुआ तथा ध्वस्त अवशेषों पर आँसू बहानेवाले भावुक भक्तों के हृदय को जीतने के लिए उन्होंने उनके आतूं पोंछते हुए उनसे कहा कि सच्चा धर्मायतन तो तुम्हारा आत्मा स्वयं ही है, जिसे कोई कभी ध्वस्त नहीं कर सकता, तुम तो अपने चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा की शरण में जाओ, वही निश्चय से सच्चा शरणभूत है, वह साक्षात् कारणपरमात्मा है, उसी के अवलम्बन से अबतक हुए सब अरहंत व सिद्धस्वरूप कार्यपरमात्मा बने हैं। कहा भी है - "चिदानन्द चितवनं, येयनं आनंदं सहाव आनंदं । कम्ममलं पयदि खिपनं, ममल सहावेन अन्योय संजत्तं ।। ज्ञान और आनंदमयी आत्मा का मनन करना चाहिए, क्योंकि इसी से आनन्द की या स्वाभाविक आत्मसुख की प्राप्ति होती है और इस आनन्द (104)

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142