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जैन अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कवि : बनारसीदास
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ऐसे क्या पाप किए ! पिय सुख-सागर मैं सुख-नींव । पिय शिवमन्दिर मैं िश व न f व । । पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम । पिय माघव मो कमला नाम ।। पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवलि बानि ।।' कविवर बनारसीदास को जो साम्प्रदायिकता व संकीर्णता की चक्की के पाटों के बीच पीसने का प्रयास किया गया है, वह उनके साथ न्याय नहीं हुआ है। वस्तुतः बनारसीदास का दृष्टिकोण एकदम असाम्प्रदायिक है। यदि वे साम्प्रदायिकता के किले में कैद हो जाते तो उनके द्वारा अध्यात्म का ऐसा यथार्थ उद्घाटन नहीं हो सकता था, जैसा उन्होंने समयसार नाटक आदि में किया है।
उन्होंने स्वयं तो प्रत्येक धर्म की वास्तविकता को टटोलने की कोशिश की ही है, दूसरों को भी साम्प्रदायिकता के दृष्टिकोण से ऊपर उठकर उदारता से सोचने की दिशा दी है। उन्होंने स्वयं अपने को पारम्परिक पितृकुल के श्वेताम्बर सम्प्रदाय को त्याग कर यह सिद्ध कर दिया कि वे किसी कुल विशेष में पैदा हो जाने मात्र से किसी को उस धर्म का अनुयायी नहीं मानते थे, बल्कि यदि उसमें धार्मिक गुणों का विकास हुआ है तो ही वह धार्मिक है। इस दृष्टि से सभी वर्गों एवं धर्मानुयायियों पर की गई उनकी टिप्पणियाँ द्रष्टव्य हैं - ब्राह्मण : जो निश्चय मारग गहै, रहै ब्रह्मगुण लीन
ब्रह्मदृष्टि सुख अनुभवै, सो ब्राह्मण परवीन ।। क्षत्री : जो निश्चयगुण जानकै, करै शुद्ध व्यवहार ।
जीते सेना मोह की, सो क्षत्री भुज भार ।। वैश्य : जो जाने व्यवहारनय, दृढ़ व्यवहारी होय ।
शुभ करनी सों रम रहै, वैश्य कहावै सोय ।। शूद्र : जो मिथ्यामति आदरै, राग द्वेष की खान । १. बनारसीविलास, पृष्ठ १६१ २. शुद्धात्मा
बिन विवेक करनी करै शूद्र वर्ण सो जान ।। वर्णसंकर : चार भेद करतूति सौं, ऊँच-नीच कुल नाम ।
और वर्णसंकर सबै, जे मिश्रित परिणाम ।।' इसीप्रकार वैष्णवों एवं मुसलमानों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि - वैष्णव : जो हर घर में हरि लखै, हरि बाना हरि बोय ।
___हरि छिन हरि सुमरन करे, विमल वैष्णव सोइ ।। मुलसमान : जो मन मूसै आपनो, साहिब के रुख होई।
ज्ञान मुसल्ला गह टिकै, मुसलमान है सोय ।। इस संदर्भ में डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन के विचार भी द्रष्टव्य हैं -
“धर्म के आडम्बर और क्रियाकाण्ड की निरर्थक योजनाओं के कविवर बनारसीदासजी विरोधी थे। उनका सम्पूर्ण जीवन यदि विविध धर्मों की एक प्रयोगशाला कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कभी वैष्णव, कभी शैव, कभी तांत्रिक, कभी क्रियाकाण्डी, कभी नास्तिक, कभी श्वेताम्बर तो कभी दिगम्बर जैन के रूप में सभी धर्मों का अनुभव लिया
और अन्तत: इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि धर्म का संबंध बाह्य प्रदर्शन व क्रियाकाण्ड आदि से रखा जायेगा तो उसमें व्यक्तिगत स्वार्थ, क्षुद्रता व स्वैराचार पनप उठेगा। धर्म के नाम पर भी अमानवीय तत्त्व पुष्ट होंगे। अतः धर्म का नाता अन्तस आत्मा से होना चाहिए।"
डॉ. जैन ने आगे लिखा - "कविवर बनारसीदास ने सत्रहवीं सदी के द्वितीयार्द्ध में सच्चे जैनत्व की दिशा में जनता का आदर्श मागदर्शन किया। धर्म के क्रियाकाण्ड की अति, आडम्बर का अभद्र प्रदर्शन और शिथिलाचार को उन्होंने सर्वथा अस्वीकार किया। कविवर ने स्पष्ट कहा
धर्म में व्यक्ति की नहीं, विचारों की मान्यता होनी चाहिए। उन्होंने नाटक समयसारादि ग्रन्थों में आत्मतत्त्व का अत्यन्त मार्मिक व युक्तिसंगत १. बनारसीविलास, पृष्ठ १८७ २. नवाज पढ़ने के लिए बिछानेवाली चादर ३. बनारसीविलास, पृष्ठ २०४ ४. कविवर बनारसीदास, शोधप्रबन्ध, पृष्ठ १२२ ५. कविवर बनारसीदास, शोधप्रबन्ध, पृष्ठ ४२
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