Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 112
________________ जैन अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कवि : बनारसीदास हिन्दी साहित्य के मध्यकालीन कवि तुलसीदास, सूरदास, केशवदास एवं कबीरदास की भाँति ही जैन अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ कवि बनारसीदास का भी हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। क्या भावपक्ष और क्या कलापक्ष - दोनों ही दृष्टियों से बनारसीदास की रचनाएँ श्रेष्ठ हैं। उनके ग्रन्थ समयसार नाटक, बनारसीविलास एवं अर्द्धकथानक के अध्ययन से स्पष्ट पता चलता है कि भाषा-शैली पर तो उनका विशेषाधिकार था ही; विषयवस्तु, लोकमंगल की भावना और रसानुभूति की दृष्टि से भी आपकी रचनाएँ पूर्ण साहित्यिक हैं। जैन अध्यात्म के सरलतम प्रस्तुतीकरण में कविवर बनारसीदास की काव्यकला सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुई है एवं व्यावहारिक लोकजीवन में भी उनकी रचनाएँ धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त करानेवाली एवं जनमानस की आन्तरिक भावनाओं को उद्बोधित करानेवाली मंगलमय हैं। उनके पढ़ने से पाठकों के हृदय में सहज ही उदात्त भावनाएँ उद्वेलित होने लगती हैं। इसप्रकार बनारसीदास के साहित्य में 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की त्रिवेणी का सहज संगम हो गया है। वस्तुतः बनारसीदास कबीर की शैली के क्रान्तिकारी कवि हैं। उनका अधिकांश साहित्य कबीर की भांति रूढ़ियों पर करारी चोटें करनेवाला विशुद्ध आध्यात्मिक, मानवधर्म पर आधारित एवं चिन्तन को नई दिशा देनेवाला है। उदाहरणार्थ यहाँ उनके नव्य चिन्तन के कुछ नमूने द्रष्टव्य हैं। चार पुरुषार्थों के संदर्भ में कवि ने जो प्रचलित परिभाषाओं से हटकर नया चिन्तन दिया है, वह वजनदार और यथार्थ के निकट है। जैन अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कवि : बनारसीदास २२३ धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष पुरुषार्थ को नये ढंग से परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं - कुल को अचार ताहि मूरख धरम कहै, पण्डित धरम कहै वस्तु के सुभाउ कौं। खेह को खजानौं ताहि अग्यानी अरथ कहैं, ग्यानी कहै अरथ दरब-दरसाउ कौं।। दम्पति कौ भोग ताहि दुरबुद्धी काम कहै, सुधी काम कहै अभिलाष चित्तचाउ कौं। इन्द्र-लोक थान कौं अजान लोग कहैं मोख, सुधी मोख कहै एक बंध के अभाउ कौं ।' कवि ने उपर्युक्त पद्य में लोकप्रचलित चार पुरुषार्थों की परम्परित व्याख्या के विरुद्ध मोक्षमार्ग में साधनभूत युक्तिसंगत व्याख्या प्रस्तुत की है। इसीप्रकार सप्तव्यसन के संबंध में उनका मौलिक चिन्तन द्रष्टव्य है - अशुभ में हारि शुभ में जीति यहै दूत कर्म, देह की मगनताई यहै मांसभखिवौ । मोह की गहल सौं अजान यहै सुरापान, कुमति की रीति गनिका कौ रस चखिवौ ।। निरदै लै प्रानघात करवौ यहै सिकार, परनारीसंग परबुद्धि को परखिवौ । प्यार सों पराई सौंज गहिवे को चाह चोरी, ___ एई सातौं विसन बिडारें ब्रह्म लखिवौ ।। उपर्युक्त पद्य में उन्होंने सात व्यसनों की जो क्रान्तिकारी सशक्त व्याख्या प्रस्तुत की है, वह भी अपने आप में अद्भुत है। उनका कहना है कि १. धूल-मिट्टी रूप धन ४. जुआ नामक व्यसन २. पदार्थ ३. समयसार नाटक, बन्ध द्वार, छन्द १४ ५. समयसार नाटक, साध्य-साधक द्वार, छन्द २९ (112)

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