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ऐसे क्या पाप किए ! व कर्तृत्व की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों दृष्टियों से उन्होंने अध्यात्म के क्षेत्र में सर्वाधिक व्यक्तियों को लाभान्वित किया है। पाँच लाख मुमुक्षुओं में आधे से अधिक ऐसे हैं, जिन्होंने उनसे प्रत्यक्ष लाभ लिया है। अतः उनका उनके प्रति कृतज्ञ होना स्वाभाविक ही है।
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न केवल अध्यात्म का बल्कि करणानुयोग का भी उन्हें अच्छा अभ्यास था। उनके प्रवचनों से उनके चारों अनुयोगों के अगाध ज्ञान का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आज लाखों की संख्या में उनके प्रवचनकैसे मुमुक्षुओं के घरों में उपलब्ध हैं। प्रवचनरत्नाकर के नाम से पहले गुजराती भाषा में समयसार परमागम पर उनके प्रवचन पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुए। गुजराती भाषा से हिन्दी भाषा में रूपान्तरित करने का सौभाग्य मुझे मिला। मैंने उनके गुजराती प्रवचनों का हिन्दी में लगभग छह हजार पृष्ठों में अनुवाद किया है।
धर्मप्रचार संबंधी योजनाओं में स्वामीजी की मौन स्वीकृति व हार्दिक समर्थन सदैव रहता था। उनकी इस नीति से सोनगढ़ की यह अध्यात्म वाटिका धीरे-धीरे फूलने-फलने लगी और भारत के कोने-कोने में इसकी सुगन्ध फैलने लगी।
हर्ष का विषय है कि स्वामीजी के सान्निध्य में आने से स्वाध्याय की प्रवृत्ति तो बढ़ी ही, शिक्षण-शिविरों के माध्यम से उनके समय में सोनगढ़ सेशताधिक ऐसे तत्त्वमर्मज्ञ प्रवचनकार विद्वान तैयार हुए; जिनके द्वारा तत्त्वप्रचार-प्रसार को गति मिली। स्वामीजी के प्रवचनों से ही प्रेरणा पाकर जयपुर में भी पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट की एवं उसी के अन्तर्गत श्री टोडरमल दि. जैन सिद्धान्त महाविद्यालय स्थापना हुई, जिसकी दिन दूनी रात चौगुनी हो रही प्रगति से सारा समाज सुपरिचित है। इस सम्पूर्ण आध्यात्मिक क्रान्ति का मूल श्रेय एकमात्र स्वामीजी को ही है।
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बीसवीं सदी का सर्वाधिक चर्चित व्यक्तित्व
स्वामीजी के सम्बन्ध में मुनियों ने तथा विद्वान्, श्रीमन्तों, सामाजिक राष्ट्रीय नेताओं ने उनके प्रति जो मार्मिक उद्गार व्यक्त किए हैं। उनमें से यहाँ कतिपय मनीषियों के हार्दिक उद्गार उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत हैं -
एक बार कुछ व्यक्ति आचार्यश्री शान्तिसागरजी के पास जाकर बोले
"महाराज! समाज में कानजी स्वामी के 'आत्मधर्म' ने गजब मचाया है। उनकी समयसार की एकान्तिक प्ररूपणा से बड़ी गड़बड़ी होगी, इसलिए आप आदेश निकालें व उनकी प्ररूपणा धर्मबाह्य है, ऐसा जाहिर करें।"
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उक्त कथन सुनकर आचार्यश्री ने कहा- "अगर मेरे सामने प्रवचन के लिए समयसार रखा जाएगा तो मैं भी क्या और कोई भी क्या, वही तो मुझे भी कहना पड़ेगा। पुण्यपाप को हेय ही बताना होगा, यही समयसार की विशेषता है, उनका निषेध करने से क्या होगा? कानजी का निषेध करके क्या कुन्दकुन्द का निषेध करना है? "१
मुनि सिद्धसागर महाराज ने इस प्रकार कहा- "इस युग में श्री कानजी स्वामी ने आचार्य कुन्दकुन्द के आगम का अत्यधिक प्रचार व प्रसार किया है। गुजरात में जहाँ एक भी दिगम्बर जैन नहीं था वहाँ आज उनके प्रभाव से लाखों दिगम्बर जैन हो गये हैं। स्वामीजी की प्रेरणा से अनेक गगनचुम्बी दिगम्बर जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ है तथा लाखों की संख्या में वीतरागी सत्साहित्य का प्रकाशन किया जा चुका है। श्री कानजी स्वामी द्वारा अभूतपूर्व धर्म प्रभावना हो रही है। २"
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के निर्माता प्रशान्तमूर्ति तत्त्वरसिक क्षुल्लक श्री जिनेन्द्रजी वर्णी के श्री कानजी स्वामी के प्रति उद्गार पढ़िये :
१. चारित्रचक्रवर्ती आ. श्री शान्तिसागर अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ १५७ २. आत्मधर्म, फरवरी १९७७, पृष्ठ ३२