Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 75
________________ १४८ ऐसे क्या पाप किए! भगवान महावीर के विश्वव्यापी संदेश १४९ आकाशद्रव्य, ६. कालद्रव्य हैं । जीवद्रव्य अनन्त हैं, पुद्गलद्रव्य अनन्तानन्त हैं, धर्मद्रव्य, अधर्म व आकाशद्रव्य एक-एक हैं और कालाणु असंख्यात महावीर भी जन्म से भगवान नहीं थे। उन्होंने ३० वर्ष की उम्र से ४२ वर्ष की उम्र तक १२ वर्षों की अपूर्व आत्मसाधना से परमात्म दशा प्राप्त की थी। वर्तमान चौबीसी के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के जीवनदर्शन को जब हम महावीर पुराण के आलोक में देखते हैं तो हमें उनसे प्रेरणा मिलती है कि जब एक पूँछवाला पशु साधारण आत्मा से परमात्मा बन सकता है, तो हम तो मूछवाले मानव हैं, हम अपना कल्याण क्यों नहीं कर सकते, हम नर से नारायण क्यों नहीं बन सकते? भगवान महावीर के संदेश न केवल विश्वव्यापी हैं, वे सार्वजनिक एवं सार्वकालिक भी हैं। भगवान महावीर के संदेशों को हम यदि संक्षेप में कहें तो विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद, आचरण में अहिंसा और व्यवहार में अपरिग्रह के रूप में व्यक्त कर सकते हैं। अनेकान्त और स्याद्वाद दार्शनिक (वस्तुपरक) सिद्धान्त है और अहिंसा व अपरिग्रह इन्हीं सिद्धान्तों का आचरणीय व्यावहारिक स्वरूप है। इसे ही संक्षेप में कहें तो वस्तुतः जैनदर्शन वस्तुस्वभाव और स्वसंचालित वस्तुव्यवस्था का ही दूसरा नाम है। इसे किसी तीर्थंकर विशेष ने बनाया नहीं है, बल्कि सभी तीर्थंकरों ने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा, अपने दिव्य संदेशों द्वारा मात्र बताया है, प्रचारित किया है। विश्व में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, ऐसा कोई काल नहीं जहाँ और जब सभी जीवों ने हिंसा झूठ, चोरी कुशील और परिग्रह को बुरा तथा अहिंसा, अपरिग्रह आदि को भला न माना हो। इसतरह महावीर के संदेशों का व्यावहारिक पहलु तो विश्वव्यापी है ही; सार्वजनिक है ही; सिद्धान्त भी अद्भुत है, अलौकिक है। विश्व में मात्र छह द्रव्य हैं, जिनका एक नाम वस्तु है और छः कहें तो- १. जीवद्रव्य, २. पुद्गलद्रव्य, ३. धर्मद्रव्य, ४. अधर्मद्रव्य, ५.. ये सभी द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र, स्वावलम्बी तथा नित्य परिणमनशील हैं। इनकी अपनी कार्य-कारण व्यवस्था स्व-चालित है। इनमें पाँच द्रव्य तो अचेतन हैं, उनमें सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि नहीं होते। अतः इनकी यहाँ विशेष जानकारी आवश्यक नहीं है, संभव भी नहीं है। जीव एक चेतन द्रव्य है, जो अनादिकाल से ही अपने स्वभाव से च्युत है और रागादिवश संयोगों में अटका है। इसप्रकार इसके राग-द्वेष (संयोगीभाव) होते रहते हैं। इन राग-द्वेष के विनाश से ही वीतरागता रूप धर्म प्रगट होता है। आत्मा में अनन्त गुण हैं, अनन्त शक्तियाँ हैं एवं नित्य-अनित्य, एक-अनेक, भेद-अभेद आदि परस्पर विरोधी अनन्त धर्म हैं, इन्हीं धर्म, गुण या शक्तियों की पिण्ड रूप वस्तु को अनेकान्त कहते हैं। अनेकान्त' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - अनेक+अन्त । यहाँ अन्त का अर्थ धर्म होता है। इसप्रकार अनन्त धर्मात्मक या गुणात्मक वस्तु को ही अनेकान्त कहते हैं। वस्तु के अनन्त धर्मों को एकसाथ कहा नहीं जा सकता। इन्हीं धर्मों को मुख्य-गौण करके क्रम से एक के बाद एक का कथन करने, वाणी में व्यक्त करने को स्याद्वाद कहते हैं। स्यात् सापेक्ष, वाद-कथन वस्तु के अनेक धर्मों को एकसाथ कहने की वाणी में सामर्थ्य नहीं होती, अत: मुख्य-गौण की व्यवस्था से एक को मुख्य रखकर कहना एवं शेष को गौण रखना ही स्याद्वाद है। स्याद्वाद और अनेकान्त में वाचक-वाच्य सम्बन्ध है, प्रतिपादक-प्रतिपाद्य सम्बन्ध है। 'जैनधर्म' किसी जाति, वर्ण, सम्प्रदाय या पंथ विशेष का नाम नहीं है, क्योंकि जैनधर्म का प्रतिपादन करनेवाले सभी - चौबीसों तीर्थंकर क्षत्रिय थे, तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि को शास्त्र का स्वरूप (75)

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