Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 94
________________ १८६ ऐसे क्या पाप किए! क्षत्रचूड़ामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कृति १८७ लोकपाल ने धनादि वैभव से उन्मत्त हुए अपने प्रजाजनों को उनके वैभव की मेघों की क्षणभंगुरता से तुलना करके अपने वैभव एवं ऐश्वर्य की क्षणभंगुरता का ज्ञान कराया तथा स्वयं राजा लोकपाल भी क्षणभंगुर मेघमाला देख दुःखद संसार से विरक्त होकर मुनि हो गए। इस सन्दर्भ में ग्रन्थकार कहते हैं कि जब भव्यजीवों के आत्मकल्याण का समय आ जाता है, काललब्धि आ जाती है, तो उनमें सांसारिक विषयों से स्वत: सहज ही विरक्तता होने लगती है। राजा लोकपाल ने दिगम्बर मतानुसार समस्त परिग्रह त्याग कर साधुपद की दीक्षा तो ले ली; परन्तु असाता कर्मोदय के निमित्त से उन्हें भस्मक व्याधि हो गई। इस व्याधि में भूख बहुत अधिक लगती है। जो भी जितना भी वे खाते; वह क्षणभर में भस्म हो जाता । श्रेयांसि बहुविघ्नानि अर्थात् अच्छे कार्यों में बहुत विघ्न आते हैं - इस उक्ति के अनुसार मुनिराज लोकपाल की साधुचर्या भी निर्विघ्न नहीं रही। उस व्याधिजन्य क्षुधा को सहन नहीं कर पाने से उन्हें मुनिपद छोड़ना ही पड़ा; क्योंकि दिगम्बर मुनि की चर्या बहुत ही कठोर होती है। बार-बार भोजन करना मुनि की भूमिका में सम्भव नहीं है। अतः वे व्याधि के काल में भिक्षुक का वेष धारण कर भूख मिटाने का प्रयत्न करने लगे। भस्मकरोग से पीड़ित होने से स्वयं मुनिपद से च्युत होकर भी सन्मार्गप्रदर्शक उपदेश द्वारा संसाररूप रोग को जड़ से उखाड़नेवाले भिक्षुकवेषधारी वही लोकपाल एक दिन भूख से व्याकुल होकर आहार के लिए दैवयोग से सेठ गन्धोत्कट के घर पहुँच गए। धर्मात्माओं के सहायक धर्मात्मा ही होते हैं, दुर्जन नहीं।" भिक्षुक लोकपाल की कथा को आगे बढ़ाते हुए आर्यनन्दी ने जीवन्धरकुमार से कहा - "भिक्षुक ने वहाँ तुम्हें देखा, तुमने भी भिक्षुक को देखकर उसकी भस्मक व्याधि से उत्पन्न भयंकर भूख को ताड़ लिया। १. द्वितीयलम्ब : श्लोक ८,९ भिक्षुक को अत्यन्त भूखा जानकर तुमने अपने रसोइये को आज्ञा दी कि भिक्षुक को भरपेट भोजन कराओ। जब घर में बना हुआ सम्पूर्ण भोजन खाने के बाद भी भिक्षुक की भूख शान्त नहीं हुई तो तुमने अपने भोजन में से भिक्षुक को भोजन दिया। तुम्हारे हाथ से एक ग्रास भोजन लेते ही भिक्षुक की भस्मक व्याधि तत्काल ठीक हो गई। तब उस भिक्षुक ने उस महान उपकार के बदले तुम्हें विद्या प्रदान करना ही सर्वोत्तम समझ तुम्हें उद्भट विद्वान बनाया।” | ___ मुनि आर्यनन्दी ने जीवन्धरकुमार के समक्ष रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि - "वह भिक्षुक अन्य कोई नहीं मैं मुनि आर्यनन्दी स्वयं ही हूँ। अपने गुरु का पुनीत परिचय प्राप्त कर जीवन्धरकुमार को भारी हर्ष हुआ। तीसरे लम्ब (अध्याय) के प्रारम्भ में मानव के मनोविज्ञान को उजागर करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि - मानव को ऐहिक सुखों को प्राप्त करने के लिए किसी शिक्षण-प्रशिक्षण की जरूरत नहीं पड़ती, उन्हें स्वयमेव ही उनका ज्ञान हो जाता है। कहा भी है - 'सीख बिना नर सीख रहे, विषयादिक भोगन की सुघराई' यद्यपि राजपुरी नगरी के सेठ श्रीदत्त के पास पिता द्वारा अर्जित बहुत धन था, तथापि उसे स्वयं के हाथ से धन कमाने की इच्छा हुई। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए उसके मन में अपने पक्ष की पुष्टि में निर्धनता के दोष और धनवान होने के लाभ दृष्टिगोचर हो रहे थे। एतदर्थ वह देशान्तर भी गया और शीघ्र स्वदेश लौट आया; किन्तु देशान्तर के लिए की गई समुद्रयात्रा के प्रसंग में उसे बहुत दुःखद अनुभव हुए । भारी वर्षा के कारण जब नौका डूबने लगी तो नौका ज्यों-ज्यों जलमग्न होती, त्यों-त्यों नौका पर बैठे व्यक्ति शोकमग्न होते जाते थे। तब श्रीदत्त सेठ नौका पर बैठे हुए व्यक्तियों को समझाता है कि यदि आप लोग विपत्ति से डरते हो तो विपत्ति के कारणभूत शोक का परित्याग करो। हे विज्ञ पुरुषो ! शोक (94)

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