Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 92
________________ १८२ ऐसे क्या पाप किए! ग्रन्थकार ने एक आध्यात्मिक सन्देश दिया है। साहित्य में स्वप्नों के माध्यम से सन्देश देने की परम्परा नवीन नहीं है। पुराणों में तीर्थंकरों की माताओं द्वारा देखे गए सोलह स्वप्न और भावी तीर्थंकर बालक के पिता द्वारा उनके फलों की चर्चा तो प्रसिद्ध है ही, सम्राट चन्द्रगुप्त के स्वप्न भी इतिहासप्रसिद्ध हैं। विजयारानी द्वारा देखा गया प्रथम स्वप्न, जिसमें दिखकर तत्काल नष्ट हुए अशोकवृक्ष को देखा था, उसकी चर्चा न करके महाराज सत्यन्धर ने शेष दो स्वप्नों के फल बताए; क्योंकि पहला स्वप्न उनके मरण का द्योतक था। विजयारानी के द्वारा देखे गए स्वप्न और महाराजा सत्यन्धर द्वारा उनके फलों की, की गई भविष्यवाणी जैनदर्शन की त्रैकालिक सुनिश्चित वस्तुव्यवस्था एवं वस्तुस्वातन्त्र्य और सर्वज्ञ-अनुसार जानी हुई क्रमबद्धपर्याय के महान सिद्धान्त की ओर संकेत करती है। स्पष्ट है कि पहले स्वप्न के फल के अनुसार राजा सत्यन्धर की विषया-सक्ति और उसके फलस्वरूप महाराज की मृत्यु की घटना अकारण नहीं थी, बल्कि उनकी होनहार में वह घटना भी सम्मिलित थी, पूर्व निर्धारित थी। अतः होनी को कौन टाल सकता है - ऐसे विचार से पाठकों के हृदय में विषयासक्ति के कारण जो महाराज सत्यन्धर के प्रति घृणा और अभक्ति की भावना हो रही थी, वह कम होने लगती है तथा सहानुभूति का भाव जागृत होता है। साथ ही यह विचार भी दृढ़ होता है कि भूल का फल तो सबको भोगना ही पड़ता है। अत: पाठको को भूलों से बचने की शिक्षा भी मिलती है। ___जब काष्ठांगार के मन में राजा सत्यन्धर का वध करके स्वतन्त्र राजा बनने का खोटा भाव पैदा हो गया तो राजा सत्यन्धर ने अपनी भूल का अहसास करके रानी विजया और गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा का उपाय करके पहले तो युद्ध किया; किन्तु युद्ध में हो रहे नरसंहार के कारण उन्होंने क्षत्रचूडामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कति १८३ युद्ध से विरक्त होकर युद्ध से संन्यास ले लिया और संयम तथा समाधिपूर्वक देहत्याग करके देवपर्याय प्राप्त की। इस घटना से ग्रन्थकार ने यह सन्देश दिया है कि सुबह का भूला यदिशाम तक भी सही राह पर आ जाए तो वह भूला नहीं कहलाता। जीवन में कैसे भी भले-बुरे प्रसंग बने हों, परन्तु अन्त भला सो सब भला होता है। इसी नीति के अनुसार जिसप्रकार राजा सत्यन्धर ने अन्त में संसार से विरक्त होकर संयम और समाधि में ही अपने जीवन की सार्थकता और सफलता स्वीकार करके युद्ध से विराम लेकर आत्मसाधना पूर्वक देह त्यागी, उसीप्रकार हमें भी अपने शेष जीवन को सार्थक कर लेना चाहिए। ग्रन्थकार ने खलनायक, कपटी काष्ठांगार द्वारा राजसत्ता हथियाने के पक्ष में अनेक कुयुक्तियाँ प्रस्तुत करके उसके चरित्र पर प्रकाश डाला है। जैसे कि काष्ठांगार मन ही मन सोचता है 'सैल्फ टॉक' करता है कि - सिंह को जंगल का राजा किसने बनाया ? अरे ! वनराजा को जंगल के राज्य की सत्ता कौन सौंपता है ? कौन करता है उसका राजतिलक ? जैसे वह स्वयं ही अपने बल से, पराक्रम से वन का राजा वनराज बनता है, वैसे ही मैं भी अपने बल से ही राजा बनूँगा; पराधीन रहने की अपेक्षा तो मर जाना ही अच्छा है।" ग्रन्थकार ने उपर्युक्त भाव को व्यक्त करते हुए कहा है - जीवतात् तु पराधीनात् जीवानां मरणं वरम् । मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्णं केन कानने ।।' यद्यपि धर्मदत्त मन्त्री ने काष्ठांगार को बहुत समझाया, पर जैसे पित्तज्वर वाले को दूध कड़वा ही लगता है, वैसे ही धर्मदत्त का सत्परामर्श भी सत्ता लोलुपी काष्ठांगार को नहीं सुहाया। (92) १. प्रथमलम्ब : श्लोक ४०

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