Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 101
________________ २०० क्षत्रचूड़ामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कृति ऐसे क्या पाप किए ! भला-बुरा यदि कुछ काम कीजे, परन्तु पूर्वापर सोच लीजे। बिना विचारे यदि काम होगा, अच्छा न उसका परिणाम होगा।। इधर जीवन्धरकुमार के मित्रों और हितैषियों ने यह परामर्श दिया कि अपने राज्य को वापिस हस्तगत करने और शत्रु को परास्त करने का यही सबसे अच्छा अवसर है। इस समय काष्ठांगार आपके बल-पराक्रम से आतंकित है, हतोत्साहित है। बस फिर क्या था? युद्ध हुआ और काष्ठांगार अपने ही बुने जाल में बुरी तरह उलझकर मारा गया। पूर्व घोषणा के अनुसार मामा गोविन्दराज की पुत्री लक्ष्मणा का जीवन्धर-कुमार के साथ विवाह हो गया। राजपुरीनगरी के राजसिंहासन पर राज्याभिषेक महोत्सव के साथ जीवन्धरकुमार महाराजा जीवन्धर बन गए। छोटे भाई नन्दाढ्य को युवराज पद पर आसीन किया गया। अन्य सहयोगियों को भी यथायोग्य पद प्रदान किए गए। कथानक को समापन की ओर ले जाते हुए प्रस्तुत ग्यारहवें लम्ब (अध्याय) में ग्रन्थकार कहते हैं कि - जिस राज्य को पाकर काष्ठांगार ने अपने कुशासन से निन्दा ही निन्दा पाई, उसी राज्य में सर्वगुणसम्पन्न राजनीति विशारद जीवन्धरकुमार प्रशंसा के पात्र बन गए। जब राजा जीवन्धर ने अपने पिता की खोई राजसत्ता भली-भाँति सम्भाल ली और दुष्ट काष्ठांगार को उसके किए कुकर्म की सजा देकर अपनी पूज्य माताजी को अपनी योग्यता का परिचय दे दिया तो रानी विजया अपने सर्वगुण-सम्पन्न सुपुत्र को पाकर गौरवान्वित हुईं; पर साथ ही अपने पुत्र जीवन्धर के जन्म से राजसिंहासन प्राप्त करने तक के अनेक उतार-चढ़ावों के साथ हुई जीवनयात्रा में पुण्य-पाप की विचित्रता को प्रत्यक्ष अनुभव करके तथा इस स्वार्थी और भोगलोलुपी जगत की नीच वृत्तियों का प्रत्यक्ष अनुभव कर, वे संसार से उदास भी हो गईं। वे शास्त्रों में लिखी बारहभावना और वैराग्यभावना का एक-एक दृश्य आँखों के आगे प्रत्यक्ष देख विरक्त हुईं। रानी विजया ने सबसे मोह-ममता छोड़ गृह विरक्त होने का संकल्प कर लिया और भावना भायी कि - "संसार का सुख सचमुच सुखाभास है, इसमें कहीं भी सुख-शान्ति नहीं है। अत: अब इन सबके प्रति ममत्व का त्यागकर शेष सम्पूर्ण समय को देव-शास्त्र-गुरु की शरण में जाकर आत्महित में लगाना चाहिए। शुभाशुभ कर्मफल के चक्र में पड़ा रहना उचित नहीं है।" विजयारानी के वैराग्य को देखकर जीवन्धरकुमार की धर्ममाता सुनन्दा भी संसार को असार जानकर विरक्त हो गईं और दोनों ने वन में जाकर पद्मा नामक प्रधान आर्यिका से आर्यिका के व्रत ग्रहण कर लिए। इस कथन से पाठकों को यह सन्देश मिलता है कि विवेकीजनों को अपने उत्तरदायित्वों से निर्वृत्ति मिलने पर कम से कम अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में तो आत्मकल्याण के मार्ग में लग जाना ही श्रेयस्कर है। इधर राजनीति में निपुण महाराजा जीवन्धर के सुख-शान्तिपूर्वक राज करते हुए ३० वर्ष भी ३० दिन की भाँति बहुत शीघ्र व्यतीत हो गए। सुख का लम्बा समय कब/कैसे बीत गया, पता तक नहीं चला। एक दिन की बात है - वसन्त ऋतु का सुहावना समय था, पुण्ययोग से सबप्रकार की अनुकूलता थी। अच्छा मौसम देख एक दिन महाराजा जीवन्धर ने अपनी आठों रानियों के साथ जलक्रीड़ा का महोत्सव मनाया। जब वे जलक्रीड़ा के श्रम से थक गए तो समीपवर्ती किसी लतामण्डपवाले बगीचे में जाकर बन्दरों की जो चेष्टाएँ देखीं, उससे उन्हें ऐसा लगा कि मनुष्यों की भाँति क्या पशुओं में भी ऐसी समझ, समर्पण तथा नैतिकता की अपेक्षाएँ होती हैं कि - जो बन्दर जिसको अपना ले, अपना बना ले; उसे उसके सिवाय अन्य से सम्बन्ध जोड़ना अनैतिकता है, वहाँ उस बगीचे में एक बन्दर ने ऐसी ही हरकत की, अपनी प्रेमिका के सामने अन्य वानरी से छेडखानी की: उससे उसकी प्रेमिका नाराज हो गई तो उसे मृत होने का (101)

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