Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 88
________________ १७४ ऐसे क्या पाप किए ! कर्म करता है, बन्धन को प्राप्त नहीं होता। आत्माभिमुख रहने की प्रेरणा देते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि - “एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो सो होहिदि उत्तमं सोक्खं ।।२०६ ।। हे आत्मन! यदि तू सुख चाहता है तो उस आत्मानुभव में तल्लीन होकर रह, उसी में सदा संतुष्ट रह और उसी में तृप्त हो, और सब इच्छाओं का त्याग कर दे। ऐसा करने से तुझे संवरपूर्वक निर्जरा होगी, जिससे तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा।" आत्मज्ञान की महिमा करते हुए कहा है कि आत्मा को ही नियम से अपना परिग्रह जानता हुआ ज्ञानी क्या ऐसा कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा परिग्रह है? कभी नहीं कहेगा। यदि परद्रव्य को कोई अपना मानेगा तो उस अज्ञानी को अजीव होने की आपत्ति आवेगी, जो संभव नहीं है। अज्ञानी कर्मों से क्यों बंधता है - इस सम्बन्ध में कहा है कि अज्ञानी कर्मफल की भावना करता है, अतः उसे संसार-परिभ्रमण रूप कर्मफल की प्राप्ति होती है और ज्ञानी जीव कर्म फल की कामना नहीं करता, अतः उसे कर्मफल की प्राप्ति में होनेवाला संसार-परिभ्रमण नहीं होता। इस प्रकार निर्जरा अधिकार में निर्जरा तत्त्व का आध्यात्मिक दृष्टि से विशद विवेचन हुआ है। ७. बन्धाधिकार : निर्बन्धद्वार - इस बन्धाधिकार में निर्बन्ध, निष्कषाय और निर्भय होने का मूल मन्त्र या अमोघ उपाय बताया गया है। कर्मबन्ध का मूल कारण अपना अज्ञानजन्य राग-द्वेष-मोह रूप अध्यवसान है। यदि आत्मा में अध्यवसान भाव है तो जीवों को मारो या न मारो, बन्ध निश्चित होगा ही। और यदि राग-द्वेषादि अध्यवसान नहीं है तो भले जीव मर जावे तो भी बन्ध नहीं होगा। यद्यपि रागादि अध्यवसान भाव किसी न किसी व्यक्ति या वस्तु के समयसार : संक्षिप्त सार १७५ अवलम्बन से होते हैं, परन्तु बन्ध उस व्यक्ति या वस्तु के कारण नहीं, बल्कि अपने अध्यवसान से होता है। अतः परवस्तु या व्यक्ति पर रागद्वेष करना व्यर्थ है। जिस प्रकार तेल लगाकर धूल भरे अखाड़े में व्यायाम करने से पुरुष को जो मैल लगता है, उसका कारण तेल है, व्यायाम व अखाड़ा नहीं; उसीप्रकार बन्ध का कारण मात्र रागादि अध्यवसान है, कर्मरज, मनवचन-काय की प्रवृत्ति तथा चेतन-अचेतन की हिंसा व पंचेन्द्रिय के भोगादि बन्ध के कारण नहीं हैं। इस अधिकार में पर को सुखी-दुःखी करने, मारने-जिलाने या पर के द्वारा सुखी-दुःखी होने, मारने-जीवित रखने की मिथ्या मान्यता सम्बन्धी जो २४७ से लेकर २६६ तक २० गाथाएँ हैं वे अत्यन्त मार्मिक हैं। वे पाठकों की मिथ्या मान्यता पर सीधी चोट करती हैं। उनमें कहा गया है कि - यदि कोई ऐसा मानता है कि मैं अन्य को मार सकता हूँ या अन्य जन मुझे मार सकते हैं, तो उसकी यह मान्यता अज्ञानमय है, क्योंकि जब मरण आयु के क्षय से ही होता है तो तुम किसी को कैसे मार सकते हो? और अन्य जन भी तुम्हें कैसे मार सकते हैं? न तो तुम किसी की आयु छीन सकते हो और न कोई तुम्हारी आयु छीन सकता है। ___इसीप्रकार मैं अन्य को बचाता हूँ या अन्य जन मुझे बचाते हैं - यह मान्यता भी मिथ्या है, क्योंकि सभी जीव अपने-अपने आयुकर्म से जीवित रहते हैं। न तो हम किसी को आयु दे सकते हैं, न हमें कोई अपनी आयु दे सकता है। तो फिर हमने किसी को बचाया या हमें किसी ने बचाया - यह मान्यता भी मिथ्या है। __ यही सिद्धान्त पर को सुखी-दुःखी करने के सम्बन्ध में एवं पर से स्वयं के सुखी-दुःखी होने के सम्बन्ध में लागू होता है। अज्ञानी जीव इसी मिथ्या मान्यता से दुःखी हैं। एतदर्थ आचार्य कुन्दकुन्द ने गाथा २६७ से २६९ तक । तीन गाथाओं (88)

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