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ऐसे क्या पाप किए!
परिचर्चा एवं गर्भशोधन की क्रिया होती है। तीर्थंकर का जीव जब गर्भ में आने वाला होता है, उसके एक दिन पूर्व तीर्थंकर की माता को सोलह शुभ स्वप्न दिखाई देते हैं। माता प्रातः उठकर राजदरबार में जाकर उन स्वप्नों का फल अपने पति से पूछती हैं। पति उन्हें स्वप्नों का फल बताते हैं, जिसे ज्ञातकर माता तो अति हर्षित होती ही हैं, राजदरबार में उपस्थित समस्त प्रजाजन एवं इन्द्र और देवगण भी हर्षित होकर जोर-शोर से गर्भ कल्याण का मंगल महोत्सव मनाते हैं।
जब तीर्थंकर का जन्म होता है, तब तीनों लोकों में हर्ष का वातावरण छा जाता है। चौबीसों घंटे नरक की यातनायें भोगने वाले नारकी जीवों को भी एक क्षण के लिए सुख-शान्ति का अनुभव होता है। भव्य जीवों के तो मानों भाग्य ही खुल जाते हैं। इन्द्रों का आसन कंपायमान होता है, इससे उन्हें ज्ञात होता है कि तीर्थंकर का जन्म हो गया है। वे तुरंत सदलबल तीर्थंकर के जीव का जन्म कल्याणक मनाने के लिए चल पड़ते हैं। इन्द्राणी प्रसूतिगृह में जाकर माता के पास मायामयी बालक सुलाकर बाल-तीर्थंकर को जन्माभिषेक के लिए सौधर्म इन्द्र को सौंपती है। सौधर्म इन्द्र बाल तीर्थंकर को ऐरावत हाथी पर बिठाकर देव समूह के साथ सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं। वहाँ उनका क्षीर सागर के पवित्र जीव-जन्तुरहित प्रासुक जल से अभिषेक करते हैं। उन जैसा महोत्सव मनाना तो आज हमारे लिए असंभव ही है; फिर अपनी शक्ति और भक्ति के अनुसार हम भी इन पंच कल्याणक उत्सवों में साधर्मीजनों में से ही इन्द्रों की प्रतिष्ठा करके जन्म कल्याणक को सर्वाधिक उत्साह से मनाते हैं।
यहाँ कोई पूछ सकता है कि गर्भ और जन्म तो सभी जीवों के होते हैं; फिर मात्र तीर्थंकरों के ही ये दोनों उत्सव इन्द्रों द्वारा कल्याणक के रूप में क्यों मनाये जाते हैं? हमारे तुम्हारे क्यों नहीं?
समाधान यह है कि - यद्यपि गर्भ में आना और जन्म लेना कोई नई बात नहीं हैं, बड़ी बात भी नहीं है, बल्कि ये दुःखद ही होते हैं; किन्तु
पंचकल्याणक : पाषाण से परमात्मा बनने की प्रक्रिया
१२९ जिस गर्भ के बाद पुनः किसी माँ के गर्भ में न जाना पड़े, जिस जन्म के बाद किसी के उदर से पुनः जन्म न लेना पड़े। जिस गर्भ एवं जन्म में जन्म-मरण का अभाव होकर मुक्ति की प्राप्त हो, वह गर्भ और जन्म कल्याण स्वरूप होने से कल्याणक के रूप में मनाये जाते हैं। तीर्थंकर का जीव अब पुनः गर्भ में नहीं आयेगा, पुनः जन्म भी नहीं लेगा; अतः उसका ही गर्भ-जन्म कल्याण के रूप में मनाया जाता रहा है, मनाया जाता रहेगा।
यद्यपि 'तीर्थंकर' नामक पुण्य प्रकृति का उदय-अरहंत अवस्था में केवलज्ञान होने पर तेरहवें गुणस्थान में आता है, तथापि उस तीर्थंकर प्रकृति के साथ ऐसा सातिशय पुण्य भी बँधता है, जिसके फलस्वरूप गर्भ, जन्म, तप कल्याणक के मंगल महोत्सव मनाये जाते हैं। तीर्थंकर प्रकृति के फल में उनकी वाणी में ऐसी सातिशय सामर्थ्य प्रगट होती है कि उनकी निरक्षरी वाणी (दिव्यध्वनि) को श्रोता अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं।
तीर्थंकर जन्म से ही मति-श्रुति एवं अवधिज्ञान के धारी होते हैं। वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि भी जन्म से ही होते हैं; अतः संसार, शरीर और भोगों की क्षण भंगुरता और असारता से भी भली-भाँति परिचित होते ही हैं; फिर भी अनेक तीर्थंकर तो बहुत लम्बे समय तक घर-गृहस्थी में रहकर राज-काज करते रहे। इसी वर्तमान चौबीसी के आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को ही देखो न! उनकी चौरासी लाख पूर्व की कुल आयु थी, जिसमें तेरासी लाख पूर्व तक तो राज्य ही करते रहे । न केवल राज्य करते रहे, बल्कि राज्य और परिवार के बीच रहकर लौकिक सुख भी भोगते रहे । नीलांजना का नृत्य देखते-देखते हुई उसकी मृत्यु ही तो उनके वैराग्य का निमित्त बनी थी न! शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ तो चक्रवर्ती पद के धारक भी थे, जिनके छह खण्ड की विभूति और छियानवें हजार रानियाँ थीं।
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