Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 50
________________ ऐसे क्या पाप किए ! आचार्य कुन्दकुन्द कृत नियमसार गाथा १२२ में समाधि की चर्चा करते हुए कहा है कि - " वचनोच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतरागभाव से जो आत्मा को ध्याता है, उसे समाधि कहते हैं। " ९८ आचार्य योगीन्दुदेव कृत परमात्मप्रकाश की १९०वीं गाथा में परम समाधि की व्याख्या करते हुए ऐसा कहा है कि- “समस्त विकल्पों के नाश होने को परम समाधि कहते हैं। " इसे ही ध्यान के प्रकरण में ऐसा कहा है कि- "ध्येय और ध्याता का एकीकरणरूप समरसीभाव ही समाधि है ।" स्याद्वाद मंजरी की टीका में योग और समाधि में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है – “बाह्यजल्प और अन्तर्जल्प के त्यागरूप तो योग है तथा स्वरूप में चित्त का निरोध करना समाधि है। " इसप्रकार जहाँ भी आगम में समाधि के स्वरूप की चर्चा आई है, उसे जीवन साधना आत्मा की आराधना और ध्यान आदि निर्विकल्प भावों से ही जोड़ा है। अतः समाधि के लिए मरण की प्रतीक्षा करने के बजाय जीवन को निष्कषाय भाव से, समतापूर्वक, अतीन्द्रिय आत्मानुभूति के साथ जीना जरूरी है। जो सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा के आश्रय से ही संभव है। तत्त्वज्ञान के अभ्यास के बल पर जिनके जीवन में ऐसी समाधि होगी, उनका मरण भी नियम से समाधिपूर्वक ही होगा । एतदर्थ हमें अपने जीवन में जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों का अध्ययन और उन्हीं की भावनाओं को बारम्बार नचाना, उनकी बारम्बार चिन्तन करना - अनुप्रेक्षा करना अत्यन्त आवश्यक है। तभी हम राग-द्वेष से मुक्त होकर निष्कषाय अवस्था को प्राप्त कर सकेंगे। जिन्होंने अपना जीवन समाधिपूर्वक जिया हो, मरण भी उन्हीं का समाधिपूर्वक होता है। वस्तुतः आधि-व्याधि व उपाधि से रहित आत्मा के निर्मल परिणामों का नाम ही समाधि है। (50) समाधि-साधना और सिद्धि ९९ पर ध्यान रहे, जिसने अपना जीवन रो-रोकर जिया हो, जिनको जीवनभर संक्लेश और अशान्ति रही हो, जिनका जीवन केवल आकुलता में ही हाय-हाय करते बीता हो, जिसने जीवन में कभी निराकुलता का अनुभव ही न किया हो, जिन्हें जीवनभर मुख्यरूप से आर्तध्यान व रौद्र ध्यान ही रहा हो; उनका मरण कभी नहीं सुधर सकता; क्योंकि “जैसी मति वैसी गति।" आगम के अनुसार जिसका आयुबंध जिसप्रकार के संक्लेश या विशुद्ध परिणामों में होता है, उसका मरण भी वैसे ही परिणामों में होता है। अतः यहाँ ऐसा कहा जायगा कि “जैसी गति वैसी मति" । जब तक आयुबंध नहीं हुआ तबतक मति अनुसार गति बंधती है। और अगले भव की आयुबंध होने पर 'गति के अनुसार मति' होती है। अतः यदि कुगति में जाना पसंद न हो तो मति को सुमति बनाना एवं व्यवस्थित करना आवश्यक है, कुमति कुगति का कारण बनती है और सुमति से सुगति की प्राप्ति होती है। जिन्हें सन्यास व समाधि की भावना होती है, निश्चित ही उन्हें शुभ आयु एवं शुभगति का ही बंध हुआ है या होनेवाला है । अन्यथा उनके ऐसे उत्तम विचार ही नहीं होते । कहा भी है तादृशी जायते बुद्धि, व्यवसायोऽपि तादृशः । सहायस्तादृशाः सन्ति, यादृशी भवितव्यता ।। बुद्धि, व्यवसाय और सहायक कारण कलाप सभी समवाय एक होनहार का ही अनुशरण करते हैं। मोही जीवों को तो मृत्यु इष्टवियोग का कारण होने से दुःखद ही अनुभव होती है। भला मोही जीव इस अन्तहीन वियोग की निमित्तभूत दुःखद मृत्यु को महोत्सव का रूप कैसे दे सकते हैं ? नहीं दे सकते ।

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