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समाधि-साधना और सिद्धि
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ऐसे क्या पाप किए! जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा अथवा असाध्य रोग आदि कोई ऐसी अनिवार्य परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसके कारण धर्म की साधना संभव न रहे तो आत्मा के आश्रय से कषायों को कृश करते हुए अनशनादि तपों द्वारा काय को भी कृश करके धर्म रक्षार्थ मरण को वरण करने का नाम सल्लेखना है। इसे ही मृत्यु महोत्सव भी कहते हैं।
धर्म आराधक उपर्युक्त परिस्थिति में प्रीतिपूर्वक प्रसन्न चित्त से बाह्य में शरीरादि संयोगों को एवं अन्तरंग में राग-द्वेष आदि कषायभावों को क्रमशः कम करते हुए परिणामों में शुद्धि की वृद्धि के साथ शरीर का परित्याग करता है। बस यही सल्लेखना का संक्षिप्त स्वरूप है।
समाधि की व्याख्या करते हुए शास्त्रों में कहा गया है कि - ‘समरसी भावः समाधिः' समरसी भावों का नाम समाधि है। समाधि में त्रिगुप्ति की प्रधानता होने से समस्त विकल्पों का नाश होना मुख्य है।
सल्लेखना में जहाँ काय व कषाय कृश करना मुख्य है, वहीं समाधि में निजशुद्धात्म स्वरूप का ध्यान प्रमुख है। स्थूलरूप तीनों एक होते हुए भी साधन-साध्य की दृष्टि से सन्यास समाधि का साधन है और समाधि सल्लेखना का; क्योंकि सन्यास बिना समाधि संभव नहीं और समाधि बिना सल्लेखना-कषायों का कृश होना संभव नहीं होता।
सल्लेखना के आगम में कई प्रकार से भेद किए हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण इसप्रकार है
नित्यमरण सल्लेखना :- प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्म के क्षय के साथ द्रव्य सल्लेखनापूर्वक विकारी परिणाम विहीन शुद्ध परिणमन नित्यमरण सल्लेखना है।
तद्भवमरण सल्लेखना :- भुज्यमान (वर्तमान) आयु के अन्त में शरीर और आहार आदि के प्रति निर्ममत्व होकर साम्यभाव से शरीर त्यागना तद्भवमरण सल्लेखना है।
काय सल्लेखना :- काय से ममत्व कम करते हुए काय को कृश करना; उसे सहनशील बनाना काय सल्लेखना है। एतदर्थ कभी उपवास,
कभी एकाशन, कभी नीरस आहार कभी अल्पाहार (उनोदर)।- इसतरह क्रम-क्रम से शक्तिप्रमाण आहार को कम करते हुए क्रमशः दूध, छाछ गर्मपानी से शेष जीवन का निर्वाह करते मरण के निकट आने पर पानी का भी त्याग करके देह का त्याग करना काय सल्लेखना है।
भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना :- इसमें भी उक्त प्रकार से ही भोजन का त्याग होता है। इसका उत्कृष्ट काल १२ वर्ष व जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है।
कषाय सल्लेखना :- तत्त्वज्ञान के बल से कषायें कृश करना ।
आगम में मरण या समाधि मरण के उल्लेख अनेक अपेक्षाओं से हुए हैं - उनमें निम्नांकित पाँच प्रकार के मरण की भी एक अपेक्षा है।
१. पण्डित-पण्डित मरण :- केवली भगवान के देह विसर्जन को पण्डित-पण्डित मरण कहते हैं। इस मरण के बाद जीव पुनः जन्म धारण नहीं करता।
२. पण्डित मरण :- यह मरण छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराजों के होता है । एकबार ऐसा मरण होने पर दो-तीन भव में ही मुक्ति हो जाती है।
३. बाल पण्डित मरण - यह मरण देशसंयमी के होता है। इस मरण के होने पर सोलहवें स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है।
४. बाल मरण :- यह मरण चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि के होता है। इस मरण से प्रायः स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
५. बाल-बाल मरण :- यह मरण मिथ्यादृष्टि के होता है। यह मरण करने वाले अपनी-अपनी लेश्या व कषाय के अनुसार चारों गतियों के पात्र होते हैं। पाँचवें बाल-बाल मरण को छोड़कर उक्त चारों ही मरण समाधिपूर्वक ही होते हैं, परन्तु स्वरूप की स्थिरता और परिणामों की विशुद्धता अपनी-अपनी योग्यतानुसार होती है। ___ समाधिधारक यह विचार करता है कि - "जो दुःख मुझे अभी है, इससे भी अनंतगुणे दुःख मैंने इस जगत में अनन्तबार भोगें हैं, फिर भी आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ा । अतः इस थोड़े से दुःख से क्या घबराना?
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