Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 62
________________ १२३ भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान भारत विविध वर्गों, समाजों, सम्प्रदायों और जातियों का ऐसा बृहद बगीचा है; धार्मिक, सामाजिक रीति-रिवाजों, पुरातन परम्पराओं की ऐसी चित्र-विचित्र वाटिका है, जिसमें नाना संस्कृतियों के रंग-बिरंगे फूल खिलते रहे हैं, खिल रहे हैं और खिलते रहेंगे। ___ भारतीय जन-जीवन में धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में पुरातन परम्परागत मूलतः दो संस्कृतियों का बाहुल्य रहा है। एक श्रवण संस्कृति और दूसरी वैष्णव (वैदिक) संस्कृति । श्रमण संस्कृति में वर्तमान में भारत में मात्र जैन संस्कृति ही अधिक फूल-फल रही है; क्योंकि इसके नैतिक मूल्य 'अहिंसा परमोधर्मः' के सिद्धान्त पर आधारित हैं तथा जैनधर्म का मूल आधार अध्यात्म और अहिंसा है। धार्मिक संस्कृतियाँ और सामाजिक संस्कृतियाँ एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। धार्मिक सिद्धान्त ही पूर्व परम्पराओं और आचार-विचार को संस्कारित करते हैं। ये परिष्कृत परम्परायें और आचार-विचार ही सभ्यता और संस्कृतियों के जनक होते हैं। ये सामाजिक संस्कृतियाँ और पारम्परिक रीति-रिवाज धार्मिक विचारों की भावभूमि पर ही आधारित होते हैं, धार्मिक भावनाओं का ही अनुसरण करते हैं। इस कारण इन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य और सामाजिक सत्य है कि जब दो भिन्न सामाजिक संस्कृतियाँ, भिन्न-भिन्न जातियाँ अथवा भिन्न-भिन्न धर्मों को माननेवाले परिवार एक ही मौहल्ले में पास-पड़ोस में साथसाथ रहते हैं तो वे एक-दूसरे को प्रभावित किए बिना नहीं रहते। जैनों के मौहल्ले में रहनेवाले जैनेतर समाज भी जैनों के आकर्षक धार्मिक एवं भारतीय संस्कृति के विकास में जैनधर्म का योगदान समाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगते हैं, जैनों के शुद्ध-सात्विक खानपान और आचार-विचार से प्रभावित होकर दिन में खाने लगते हैं, पानी छानकर पीने लगते हैं। अभक्ष्य आहार और अनैतिक व्यवहार का भी त्याग कर देते हैं तथा ब्राह्मणों के मौहल्ले में रहनेवाले मुस्लिम भाई भी दशहरा-दिवाली मनाने लगते हैं। ___ यह तो हुई संस्कृति, सभ्यता और पारम्परिक रीति-रिवाजों के उद्भव और विकास की बात; जो सभी वर्गों, जातियों और सम्प्रदायों में अपनेअपने धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार पनपती है, और विकसित होती हैं। ___ आज हमारा विचारणीय मूल मुद्दा यह है कि जैनधर्म का भारतीय संस्कृति को क्या प्रदेय है - इस विषय को जानने के लिए हमें जैनधर्म का व्यवहारिक पक्ष देखना होगा। जैनधर्म न केवल जैनसमाज तक ही सीमित है; बल्कि यह धर्म विश्वधर्म है, यह धर्म सार्वजनिक है, सार्वभौमिक है और सार्वकालिक है - ऐसा कोई देश नहीं, ऐसा कोई काल नहीं, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो जैनधर्म के व्यवहारिक और सैद्धान्तिक पक्ष से प्रभावित न हो, सहमत न हो; क्योंकि जैनधर्म मूलतः जैनदर्शन के चार महान सैद्धान्तिक स्तम्भों पर खड़ा है। वे चार स्तम्भ हैं - अहिंसा, अनेकान्त, स्याद्वाद और अपरिग्रह। जैनों के आचरण में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और व्यवहार में अपरिग्रह का सिद्धान्त समाया हुआ है। यहाँ अनेकान्त व स्याद्वाद जैसे दार्शनिक सूक्ष्म सिद्धान्तों की चर्चा तो संभव नहीं है; परन्तु अहिंसा एवं अपरिग्रह सिद्धान्तों का भी भारतीय संस्कृति के लिए भी बहुत कुछ प्रदेय है, जिसकी संक्षिप्त चर्चा ही अभी यहाँ की जा सकती है। जैनों की अहिंसा न केवल मानव के प्राणघात न करने तक ही सीमित है, बल्कि किसी भी जीव को, प्राणी मात्र को न सताना, न दुःख पहुँचाना तथा अपने आत्मा में भी किसी के प्रति राग-द्वेष न रखना (62)

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