Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 59
________________ धर्म, परिभाषा नहीं प्रयोग है किसी भी विषय को व्यक्त करने का माध्यम एकमात्र भाषा ही है, जब किसी भी वस्तु को या उसके भाव को व्यक्त करने के लिए उसे सुव्यवस्थित, निर्दोष व सुन्दर भाषा का स्वरूप प्रदान किया जाता है तो उसे ही परिभाषा कहते हैं। ___ अध्ययन-अध्यापन के सभी क्षेत्रों में अपने कुछ पारिभाषिक शब्द होते हैं, कुछ परिभाषाएँ होती हैं जो अपने निश्चित व सीमित अर्थों से जुड़ी होती हैं उनका मनमाने ढंग से अर्थ नहीं किया जा सकता। जैसे कि 'दर्शन' शब्द का अर्थ अवलोकन भी है और श्रद्धान भी किन्तु जैनदर्शन के मोक्षमार्ग के प्रकरण में सम्यक्दर्शन का अर्थ भले प्रकार अवलोकन न होकर तत्त्व-श्रद्धान और आत्म अनुभूति ही होता है। ___ इसीप्रकार जैनधर्म के क्षेत्र में अनेक पारिभाषिक शब्द और परिभाषाएँ निश्चित हैं। जिनके माध्यम से धर्म का स्वरूप ज्ञात किया जाता है किन्तु परिभाषाएँ याद कर लेना स्वयं धर्म नहीं है, बल्कि उन परिभाषाओं में जो बात कही गई है, उसका जीवन में प्रयोग करना धर्म है। हमसे कोई पूछे “धर्म क्या है"? हम तुरन्त उत्तर दे सकते हैं - “यः सत्वान् उत्तमे सुखे धरति सः धर्मः।" अर्थात् जो प्राणियों को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख प्राप्त कराये वह धर्म है। “वत्थु सहावो धम्मो”, अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है। “दसंणमूलो धम्मो', "चारित्तं खलु धम्मो” आदि और भी जो-जो परिभाषाएँ शास्त्रों में हैं और हमने पढ़ी हैं, उन्हें हम एक श्वांस में कह जायेंगे, क्योंकि ये सब परिभाषाएँ हमने शास्त्रों में पढ़ ली हैं, याद कर ली हैं। धर्म, परिभाषा नहीं प्रयोग है इसी तरह अहिंसा, अनेकान्त, स्याद्वाद, नय प्रमाण, निक्षेपादि तथा द्रव्य-गुण-पर्याय, साततत्त्व, नवपदार्थ तथा गुणस्थान, मार्गणास्थान, प्राण, पर्याप्ति आदि सभी सिद्धान्तों की भी हम सूक्ष्म से सूक्ष्म चर्चा कर सकते हैं, बड़ी-बड़ी धर्म-सभाओं को भी सम्बोधित करना कोई बड़ी बात नहीं है; किन्तु आत्मानुभूति के अभाव में ये सब वाग्विलास ही हैं, क्योंकि धर्म का शुभारम्भ भेदविज्ञान और स्वानुभूति से ही होता है। स्वानुभूति ही मोक्षमार्ग का प्रथम प्रयोग है और इसके बिना धर्म की परिभाषाएँ कोई अर्थ नहीं रखती। पण्डित टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अध्याय में स्पष्ट लिखा है - "जिन शास्त्रों से जीव के त्रसस्थावरादि रूप तथा गुणस्थान, मार्गणादि रूप भेदों को जानता है, अजीव के पुद्गलादि भेदों को तथा उनके वर्णादि विशेषों को जानता है; परन्तु अध्यात्म शास्त्रों में भेदविज्ञान को कारणभूत व वीतराग दशा होने को कारणभूत जैसा निरूपण किया है वैसा नहीं जानता। किसी प्रसंगवश उसी प्रकार जानना भी हो जावे तब शास्त्रानुसार जान तो लेता है; परन्तु अपने को आप रूप जानकर पर का अंश भी अपने में न मिलाना और अपना अंश भी पर में न मिलना - ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता है। जैसे अन्य मिथ्यादृष्टि निर्धार बिना पर्यायबुद्धि से जानपने में व वर्णादि में अहंबुद्धि धारण करते हैं, उसी प्रकार यह भी आत्माश्रित ज्ञानादि व शरीराश्रित उपदेश, उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व मानता है। कभी शास्त्रानुसार सच्ची बात भी बनाता है परन्तु अंतरंग निर्धार रूप श्रद्धान नहीं है अतः इसे सम्यक्त्वी नहीं कहते।" इससे स्पष्ट है कि धर्म मात्र परिभाषाओं में ही सीमित नहीं, बल्कि वस्तु स्वरूप की सही प्रतीतिपूर्वक एक, अभेद, अखण्ड, त्रैकालिक, शुद्ध, ज्ञायक स्वभावी निजात्म तत्त्व को जानने में, पहचानने में, उसी में (59)

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