Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ ३० ऐसे क्या पाप किए ! छुटकारा पाने का मार्ग है; परन्तु धर्मक्षेत्र में हुई हिंसा से छुटकारा पाना संभव नहीं है। कहा भी है अन्य क्षेत्रे कृतं पापं, धर्म क्षेत्रे विनश्यति । धर्मक्षेत्रे कृतं पापं, बज्रलेपो भविष्यति ।। भगवान तो वीतराग हैं, उन्हें पूजन सामग्री से कोई प्रयोजन नहीं है। अपने चित्त की स्थिरता के लिए ही यह अष्टद्रव्य रूप विविध आलंबन हैं, अतः जहाँ श्रावक स्वयं अष्टमी चतुर्दशी व्रत आदि के दिनों में अहिंसक आचरण के लिए सचित्त वस्तुओं का उपयोग नहीं करता, वहाँ जिनेन्द्र पूजन में भी अहिंसक आचरण क्यों न करें? पूजन विधि के ३ भेद भी शास्त्रों में हैं १. सचित्त पूजा, २ . अचित्त पूजा, ३. मिश्र पूजा। जिनका अर्थ निम्न प्रकार हैं : १. प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सो सचित्त पूजन है। अर्थात् यथा साक्षात् समवशरण में विराजमान अरहंत भगवान एवं मुनिराज की पूजा करना । २. तीर्थंकर आदि के शरीर की और द्रव्यश्रुत ( लिपिबद्ध ) शास्त्रों की पूजा करना वह अचित्त पूजा है। ३. अरहंत एवं उनकी मूर्ति दोनों की पूजा करना मिश्र पूजा कहलाती है। ध्यान दें, उक्त कथन पूज्य के सचित्त व अचित्त होने की बात कही गई हैं, न कि द्रव्य की । पूजन का प्रारम्भ विनय पाठ से होता है। विनय पाठ में पहली पंक्ति है - " इह विध ठाढ़ो होय के” अर्थात् विधिपूर्वक विनय से खड़े होकर भगवान की पूजन प्रारम्भ करते हुए भक्त भगवान के गुणगान करता है। कहीं-कहीं बैठकर पूजन करने की परम्परा है, परन्तु जबतक / जहाँ तक १. देवपूजा संबंधी विशेष जानकारी के लिए देखें, लेखक की कृति जिनपूजन रहस्य । (16) श्रावक के षट् आवश्यक ३१ खड़ा रहा जा सके तब तक तो प्रमाद रहित होकर खड़े रहने में ही विनयभाव हैं। जिसमें खड़े होने की सामर्थ्य नहीं है वह बैठकर भी पूजन करें तो निषेध नहीं। विशेष परिस्थिति में बैठकर पूजन करना अपवाद मार्ग है, राजमार्ग नहीं। आह्वानन तो फिर भी खड़े होकर ही करें। स्वस्ति मंगल पाठ :- विनय पाठ के पश्चात् नित्य नियम पूजा पढ़ने की परम्परा हैं - उसमें पूजक द्वारा स्वस्ति मंगल पाठ की पंक्तियाँ पढ़ते हुए जिनेन्द्र पूजन का उद्देश्य, पूजन करने के संकल्प का भाव प्रगट किया गया है - यह स्वस्ति मंगल विधान संस्कृत में होने से पूजक पढ़ तो जाते हैं; परन्तु उन्हें यह पता नहीं रहता है कि हम भगवान के समक्ष क्याक्या कह गये हैं? मंगल पाठ में कहा गया है कि “मैं तीन जगत के ईश, स्याद्वाद के नायक, अनन्तगुणों के धारक श्रीमद् जिनेन्द्र भगवन्तों को अभिवादन करके उनकी पूजा करता हूँ।” पूजा करने वाला भक्त यह भलीभाँति जानता है कि पूजा का भाव "सुकृतैक हेतु" अर्थात् पुण्य बंध का ही कारण है। अतः पूजा करने की प्रतिज्ञा करते हुए भक्त स्वयं कहता है - “अर्हत पुराण पुरुषोत्तम पावनानि, वस्तून्यमून्यमखिलान्ययमेक एव । अस्मिन् ज्वलद् विमल केवल बोधबन्हौ पुण्यं समग्र महमेक मना जुहोमि ।। हे अरहंत! हे पुराण पुरुषोत्तम !! इन समस्त पवित्र वस्तुओं के द्वारा की गई पूजा से मुझे जो पुण्य की प्राप्ति होगी, वह पुण्य मुझे नहीं चाहिए। अतः इस पूजन में जो पुण्य प्राप्ति हो, उसको मैं आपके केवलज्ञान रूपी अग्नि में समर्पित करता हूँ अर्थात् मुझे आत्मा की विशुद्धि और केवलज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए। मैंने आपकी पूजा पवित्रता प्राप्त करने के लिए की है, पुण्य के लिए नहीं । मेरा उद्देश्य पाप से बचना और परमात्म पद की प्राप्ति करना है, पुण्य की अभिलाषा नहीं।" १. "श्रीमद् जिनेन्द्रमभिवंध जगत्त्रयेशं स्याद्वाद नायकमनत चतुष्टयाहैं। श्री मूल संघ सुकृतैक हेतु, जैनेन्द्र यज्ञ विधिरेस मयाऽभ्यधामि ।। "

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